छात्र युवा संघर्ष वाहिनी , नौजवानों की जिस जमात से आपात-काल के खत्म होते होते जुड़ा उसने 'सांस्कृतिक क्रान्ति' का महत्व समझा । भवानी बाबू ने इस जमात को कहा ' सुरा-बेसुरा ' जैसा भी हो गाओ। सो , सुरे-बेसुरे गीतों का यह चिट्ठा ।
Friday, December 12, 2008
महुआ घटवारिन जैसे अनिल रघुराज को
अनिल द्वारा फिर से चिट्ठाकारी की शुरुआत को समर्पित उनका प्रिय यह गीत यहाँ प्रस्तुत हैं :
Tuesday, November 18, 2008
देखा - देखी बलम हुई जाए : बेगम अख़्तर
प्रेम की भिक्षा मांगे भिखारन,लाज हमारी रखियो साजन।
आओ सजन तुम हमरे द्वारे,सारा झगड़ा खतम हुई जाए ॥
बेग़म अख़्तर का गाया यह दादरा आज पहली बार सुना । आशा है , आप लोगों को भी पसन्द आएगा ।
Saturday, November 8, 2008
राहुल देव बर्मन की स्मृति में चुनिन्दा गीत
Wednesday, November 5, 2008
प्यास लगे तो एक बराबर...
Friday, October 31, 2008
सचिन देव बर्मन की पुण्य-स्मृति में
Friday, October 24, 2008
उस्ताद बड़े गुलाम अली ख़ाँ - हरी ओम -राग पहाड़ी,पं. जसराज-मेरो अल्लाह मेहरबान
हरि ओम ततसत ,हरि ओम,
महामन्त्र है ,इसको जपाकर ।
वो है कौन सा मन्त्र कल्याणकारी,
तो बोले त्रिलोचन महादेव
हरि ओम ततसत हरि ओम
असुर ने जो अग्नि का अम्बा रचा था,
तो निर्दोश प्रह्लाद क्यों कर बचा था ,
यही मन्त्र लिखे थे उसकी ज़ुबाँ पर
हरि ओम ततसत हरि ओम
लगी आग लंका में हलचल मचा था,
तो घर विभीषण का क्यों कर बचा था,
यही शब्द लिखे थे उसके मकाँ पर,
हर ओम ततसत हरि ओम
Thursday, October 23, 2008
दो अनूठे गीत
दूसरा गीत १९५२ की जाल फिल्म का है , साहिर लुधियानवी के बोलों को सचिन देव बर्मन ने सुरों में ढाला है , गायिका लता मंगेशकर हैं ।
सुनिए और बताइए कि पहले इन्हें सुना था या नहीं और कैसे लगे ?
Tuesday, September 30, 2008
वनराज भाटिया के गीत , स्वाति के लिए
यह पोस्ट मेरी पत्नी स्वाति के लिए है। अच्छा सुनने की आदत उन्हीं की देन है । इसमें उनसे अच्छा सुनना शामिल है । दशकों से खराब रेकॉर्ड प्लेयर के कारण इनमें से ज्यादातर गीतों को सुनना नामुमकिन था । इन्टरनेट पर ये गीत मिले तब , जब 'तुम्हारे बिन जी ना लगे घर में ' (पेश संग्रह का एक गीत) की हालत में मैं अभी हफ़्ते भर अकेला था । एक शैक्षणिक अन्तर्राष्ट्रीय कॉन्फेरेंस में शरीक होने वे हैदराबाद गयी थीं । आज ही लौटी हैं ।
जब श्याम बेनेगल ने फिल्में बनानी शुरु कीं तब ही मैंने अकेले फिल्में देखनी शुरु कीं थी। अंकुर , निशांत और उसके बाद भूमिका , मंथन,मण्डी आदि । लगता था ऐसी ही फिल्में आयें । अनन्त नाग , साधू मेहर,शबाना आज़मी, गिरीश कर्नाड ,नासिरुद्दीन शाह,अमोल पालेकर ,स्मिता पाटिल , मोहन अगाशे,कुलभूषण खरबन्दा , अमरीश पुरी जैसों का श्रेष्ठ अभिनय ! भुपेन्द्र ,प्रीति सागर ,चन्द्रू आत्मा (सी.एच. आत्मा के पुत्र ),सरस्वती राणे , उत्तरा केलकर,फिरोज दस्तूर जैसे गायक -गायिका । गोविन्द निहलानी पहले बेनेगल के कैमेरा को संभालते थे फिर खुद निर्देशक हो गए ।
बेनेगल की फिल्मों में संगीत दिया अत्यन्त प्रतिभासम्पन्न वनराज भाटिया ने । मुम्बई में और विलायत में पश्चिमी संगीत की तालीम हासिल करने और दिल्ली विश्वविद्यालय में संगीतशास्त्र के अध्यापक रहने के बावजूद इन्होंने भारतीय संगीत की लोक परंपराओं को पकड़ा , उसका इतना खूबसूरत इस्तेमाल किया कि वह कत्तई कृत्रिम नहीं लगता । हैदराबाद के आसपास की दक्खन परम्परा , मराठी लावणी और नाट्य संगीत और गुजरात-राजस्थान की लोक संगीत परम्परा के साथ साथ शास्त्रीय संगीत का प्रयोग । इन गीतों में इन आंचलिक बोलियों और धुनों को भी आप सुन पायेंगे ।
गीतों के विवरण जितना जुटे दिए जा रहे हैं :
क्र.सं. मुखड़ा गायक / गायिका गीतकार फिल्म
१ 'मुन्दर बाजू ,भाग १' सरस्वती राणे ,मीना फाटखेकर --- भूमिका
२ 'मुन्दर बाजू , भाग २' सरस्वती राणे ,उत्तरा केलकर ---- भूमिका
३ 'घट-घट में राम रमैय्या' फिरोज़ दस्तूर ---- भूमिका
४ 'मेरा जिचकीला बालम ना आया' भूपेन्द्र,प्रीति सागर एवं साथी, वसंत देव भूमिका
५ 'मेरी जिन्दगी की कश्ती' चन्द्रू आत्मा, राजा मेंहदी अली खां भूमिका
६ 'मेरो गांव काँठा पारे' प्रीति सागर, नीति सागर मंथन
७ 'पिया बाज प्याला पीया जाय ना' प्रीति सागर, मोहम्मद कुली कुतुब शाह, निशांत
८ 'पिया तुज आशना हूं मैं' भूपेन्द्र, मोहम्मद कुली कुतुब शाह निशांत
९ 'सावन के दिन आये सजनवा' प्रीति सागर, मजरूह सुल्तानपुरी भूमिका
१० 'तुम्हारे बिन जी ना लगे घर में' प्रीति सागर, मजरूह सुल्तानपुरी भूमिका
नोट : नमूने और नुमाइन्दगी के लिए ये गीत प्रस्तुत किए गए हैं । विधिवत श्रवण के लिए सीडी खरींदें ।
ईद और दुर्गा पूजा के लिए मुबारकबाद !
Saturday, September 27, 2008
Wednesday, September 24, 2008
मीर, दाग़ , मोमिन,शक़ील / बेग़म अख़्तर
देख़ा इस बीमारि-ए-दिल ने आख़िर काम तमाम किया
अहदे जवानी रो-रो काटी ,पीर में लें आखें मूँद
यानी रात बहुत थे जागे , सुबह हुई आराम किया
नाहक़ हम मजबूरों पर यह तोहमत है मुख़्तारी की
चाहते हैं सो आप करे हैं , हमको बस बदनाम किया
या के सुफ़ेद-ओ-स्याह में हम को दख़ल जो है सो इतना है
रात को रो-रो सुबह किया , या दिन को ज्यूं त्यूं शाम किया
मीर के दीन-ओ-मजहब को अब पूछते क्या हो उन ने तो
कश्का खींचा , दैर में बैठा , कब का तर्क इस्लाम किया ।
- मीर तक़ी मीर
उज्र आने में भी है , पास बुलाते भी नहीं
बाएस-ए-तर्के मुलाक़ात बताते भी नहीं
ख़ूब परदा है के चिलमन से लगे बैठे हैं
साफ़ छुपते भी नहीं सामने आते भी नहीं
ज़ीस्त से तंग हो ऐ दाग़ तो जीते क्यों हो
जान प्यारी भी नहीं , जान से जाते भी नहीं
- दाग़
वो जो हम में तुम में क़रार था ,तुम्हें याद हो के ना याद हो
वही यानी वादा निबाह का ,तुम्हें याद हो के ना याद हो
वो नये गिले वो शिकायतें वो मजे मजे की हिकायतें
वो हर एक बात पे रूठना तुम्हें याद हो के ना याद हो
कोई बात ऐसी अगर हुई जो तुम्हारे जी को बुरी लगी
तो बयाँ से पहले ही भूलना तुम्हें याद हो के ना याद हो
सुनो ज़िक्र है कई साल का , कोई वादा मुझ से था आप का
वो निभाने का तो ज़िक्र क्या,तुम्हें याद हो के ना याद हो
कभी हम में तुम में भी चाह थी ,कभी हम से तुम से भी राह थी
कभी हम भी तुम भी थे आशना,तुम्हें याद हो के न याद हो
हुए इत्तेफ़ाक़ से ग़र बहम,वो वफ़ा जताने को दम-ब-दम
गिला-ए-मलामत-ए-अर्क़बा,तुम्हें याद हो के ना याद हो
वो जो लुत्फ़ मुझ पे थे बेशतर,वो करम के हाथ मेरे हाथ पर
मुझे सब हैं याद ज़रा ज़रा,तुम्हें याद हो के ना याद हो
कभी बैठे सब हैं जो रू-ब-रू तो इशारतों ही से गुफ़्तगू
वो बयान शौक किआ बरामला तुम्हें याद हो के ना याद हो
वो बिगाड़ना वस्ल की रात का , वो ना मानना किसी बात का
वो नहीं नहीं की हर आन अदा,तुम्हें याद हो के न याद हो
जिसे आप गिनते थे आशना जिसे आप कहते थे बावफ़ा
मैं वही हूँ 'मोमिन'-ए-मुब्तला ,तुम्हें याद हो के न याद हो
- मोमिन
मेरे हमनफ़स , मेरे हमनवा,
मुझे दोस्त बन के दग़ा ना दे
मैं हूँ दर्द-ए-इश्क़ से जाँ-वलब,
मुझे जिन्दगी की दुआ न दे
मेरे दाग़-ए-दिल से है रोशनी ,
इसी रोशनी से है जिन्दगी
मुझे डर है ऐ मेरे चारागर,
ये चिराग़ तू ही बुझा न दे
मुझे छोड़ दे मेरे हाल पर ,
तेरा क्या भरोसा है चारागर
ये तेरी नवाज़िश-ए-मुख़्तसर,
मेरा दर्द और बढ़ा न दे
मेरा अज़्म इतना बुलन्द है
के पराये शोलों का डर नहीं
मुझे ख़ौफ़ आतिश-ए-ग़ुल से है,
ये कहीं चमन को जला न दे
वो उठे हैं लेके होम-ओ-सुबू,
अरे ओ 'शकील' कहाँ है तू
तेरा जाम लेने को बज़्म में
कोई और हाथ बढ़ा न दे !
- शकील बदायूँनी
Thursday, September 18, 2008
आशा नहीं लता/चुलबुला-सा गीत/टैक्सी ड्राइवर/एसडी बर्मन/साहिर
दिल से मिला के दिल ,प्यार कीजिए
कोई सुहाना इक़रार कीजिए
शरमाना कैसा ,घबड़ाना कैसा
जीने से पहले , मर जाना कैसा
फ़ासलों की छाँव में ,
रस भरी फ़िज़ाओं में
इस जिन्दगी को गुलज़ार कीजिए
आती बहारें , जाती बहारें
कब से खड़ी हैं , बाँधे कतारे
छा रही है बेखुदी
कह रही है ज़िन्दगी
दिल की उमंगे बेदाद कीजिए
दिल से भुला के ,रुसवाइयों को
जन्नत बना लें , तनहाइयों को
आरज़ू जवान है
वक़्त महरबान है
दिल खो न जाये , खुशी यार कीजिये,दिल से...
डाउनलोड करें
Monday, September 15, 2008
Sunday, September 14, 2008
मुझसे पहली-सी मोहब्बत मेरे महबूब न माँग/फ़ैज़/नूरजहाँ
मैंने समझा था कि तू है तो दरख़्शा है हयात
तेरा ग़म है तो ग़मे-दहर का झ़गडा़ क्या है
तेरी सूरत से है आलम में बहारों को सबात
तेरी आखों के सिवा दुनिया में रक्खा क्या है
तू जो मिल जाये तो तकदीर निगूं हो जाए
यूं न था, मैंने फ़कत चाहा था यूं हो जाए
और भी दुख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा
राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा
अनगिनत सदियों के तारीक बहीमाना तिलिस्म
रेशमों- अतलसो- कमख्वाब में बुनवाये हुए
जा-ब-जा बिकते हुए कूचा-ओ-बाज़ार में जिस्म
खाक में लिथडे़ हुए, ख़ून में नहलाए हुए
जिस्म निकले हुए अमराज़ के तन्नूरों से
पीप बहती हुई गलते हुए नासूरों से
लौट जाती है उधर को भी नज़र क्या कीजे
अब भी दिलकश है तेरा हुस्न मगर क्या कीजे
और भी दुख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा
राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा
मुझसे पहली सी मोहब्बत मेरे महबूब ना मांग !
- फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
गायिका - नूरजहाँ
Friday, September 12, 2008
तलत के स्वर में रफ़ी का गाया गीत
बहरहाल चित्रगुप्त के संगीत निर्देशन में बनी 'भाभी' फिल्म का 'चल उड़ जा रे पंछी , अब ये देश हुआ बेगाना ' अपने जमाने का हिट गीत था । यह गीत फिल्म में मोहम्मद रफ़ी द्वारा गाया गया है । एच.एम.वी ने ७८ आर.पी.एम (बहुत तेज चलने वाले मोटे रेकॉर्ड ) के रेकॉर्ड में इस गीत को तलत महमूद की आवाज़ में भी पेश किया ['Version Recording FT21027 Twin/Black Label 78 RPM'] ।
संगीत के रसिक डॉ. बुखारी ने इस दुर्लभ गीत को यू ट्यूब में पेश किया है ,तलत साहब के कुछ दुर्लभ चित्रों के साथ । यहाँ यह बता देना उल्लेखनीय है कि मुकेश की तरह तलत महमूद ने कुछ फिल्मों में अभिनय भी किया था ।
पहले सुनें तलत महमूद के स्वर में
फिर मोहम्मद रफ़ी के स्वर में :
Wednesday, September 10, 2008
--जो न जाती हो हमारे गाँव को / रूपनारायण त्रिपाठी
यह तुम्हारी सभ्यता का काफ़िला,
आजमाने चाँद की दूरी चला ।
किन्तु जीवन में न तय हो पा रहा ,
आदमी और आदमी का फाँसला ॥
तुम अतल गहराइयों में नापते ,
फाँसला सुनसान से सुनसान का ।
किन्तु जीवन में न तय हो पा रहा ,
आँसुओं से फाँसला मुस्कान का ।
क्या करें वह चन्द्रमा का देश हम ,
जो अगम लगता हमारे पाँव को ।
क्या करें आकाश की वह राह हम ,
जो न जाती हो हमारे गाँव को ॥
रूपनारायण त्रिपाठी
Monday, September 8, 2008
आदमी को प्यार दो / नीरज
सुरा-बेसुरा कुछ न सोचेंगे आओ ।
कि जैसा भी सुर पास में है चढ़ाओ ॥
प्रिय श्रोताओं से गुजारिश है कि पूरा गीत सुनिएगा ।
गीत डाउनलोड हेतु
Thursday, September 4, 2008
'यही वो जगह है' / धुन जो स्पैम नहीं थी
किशोर वय के दोनों भाई आगे चल कर शौकिया संगीत से जुड़े़ । कबीर ने पहले गिटार और बाद में सरोद बजाना शुरु किया । नचिकेता ने माउथ ऑर्गन बजाना शुरु किया । नचिकेता ने गुजरात के माउथ ऑर्गन बजाने वालों के एक क्लब (कड़ी उनके लोकप्रिय ब्लॉग की है) के गठन में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है । क्लब से जुड़े लोग सब शौकिया बजाने वाले हैं । बिना सहयोगी वाद्यों के धुन बजाते हैं । एक जापानी माउथ ऑर्गन निर्माता कम्पनी ने प्रतिमाह इस क्लब के ब्लॉग को दो हजार रुपए का विज्ञापन देना तय किया है ।
yeh hi voh jagah h... |
Monday, September 1, 2008
शमशेरराज कपूर और चाँद उस्मानी की जीवन ज्योति
शम्मी कपूर का मूल नाम शमशेरराज कपूर था । १९४८ में अपने पिता की थियेटर कम्पनी में ५० रुपये दरमाह पर एक जूनियर एक्टर के रूप में आपने काम शुरु किया । १९५३ में बनी 'जीवन ज्योति' उनकी बतौर हीरो पहली फिल्म थी और उसमें उनकी नायिका चाँद उस्मानी थीं । शम्मी कपूर भारत में इन्टरनेट प्रयोक्ताओं में अग्रणी रहे हैं तथा Internet Users Community of India के संस्थापक अध्यक्ष रहे हैं ।
'पहेली' में जो गीत दिखाया गया है उसे अन्त तक कम ही लोगों ने सुना । इसलिए पुरुष स्वर के बारे में बताने की जरूरत नहीं समझी । पुरुष स्वर के बारे में तीन पाठकों ने ही जवाब दिए - ममता , नचिकेता और विनय जैन । ममताजी ने आशा भोंसले का स्त्री स्वर अन्य कई प्रतिभागियों की भांति सही पहचाना लेकिन पुरुष स्वर पहचानने में चूक गयीं । पुरुष स्वर जो गीत के अन्तिम हिस्से में है वह अभिनेता का खुद का स्वर है - शम्मी कपूर का । इस प्रकार गायक और गायिका दोनों के स्वर पहचानने वाले विनय जैन ( v9y ) और नचिकेता हैं ।
सिर्फ़ स्त्री -स्वर को सही पहचानने वाले पारुल , ममता , मनीष तथा स्मार्ट इण्डियन ।
दिनेशराय द्विवेदीजी और ममताजी ने गीत की मिठास को पसन्द किया ।
इस गीत में आशाजी का स्वर लता मंगेशकर के शुरुआती गीतों से कितना निकट है ! ओ.पी. नैय्यर साहब के संगीत निर्देशन में आशा भोंसले की अपनी स्वतंत्र पहचान और छाप वाले गीत बाद में आए । शम्मी कपूर को पहचानने में ममता चूकीं , उन्हें वे राज कपूर लगे । इसीलिए मुकेश और रफ़ी के बीच मुकेश चुनना उन्हें लाजमीतौर पर 'सही' लगा ।
ममताजी , सभी टिप्पणियां आज अनुमोदित हो गयी हैं । दिनेशजी ने सिर्फ़ गीत की मिठास पर राय व्यक्त की थी इसलिए पहले छपी ।
Saturday, August 30, 2008
'चाँदनी की पालकी में बैठकर' - पहेली
जवाब से इतर टिप्पणियों के लिए समय सीमा नहीं है । जवाब परसों यानी १ सितम्बर की सुबह तक लिए जाएंगे ।
Wednesday, August 27, 2008
मुकेश के स्वर में
Monday, August 25, 2008
विडियो पहेली परिणाम के बहाने 'बिन्दी'- चर्चा
यह गीत पहली बार सुना तब मुझे किसी भी भारतीय गीत से जुदा नहीं लगा । गीत मुझे काफ़ी मधुर लगा था और नायक-नायिका भी खुशनुमा लगे । मुझे तलत महमूद साहब की थोड़ी थोड़ी याद आई । फिर भाई साहब से चर्चा हुई तो उन्होंने बताया कि तलत साहब ने अभिनय भी किया है । इस कड़ी पर जाइएगा तो आपको तलत साहब की खुशनुमा तसवीरें मिलेंगी।
'हिन्दी फिल्मों को घोल कर पीए हुए' दिलीप कवठेकर साहब ने सब से विस्तृत उत्तर दिया । यह भारतीय नहीं है इस बात पर वे इन कारणों से आए :
"य़ह किसी भी हिंदुस्तानी फ़िल्म का गाना नही हो सकता. परिवेश, चेहरों के सांचे, माथे पर बिंदिया लिये एक भी महिला नही, कोई भी पहचान की सूरत नही, एक्स्ट्रा में भी नही."
उनके बताये कारण में दो बातें खटकी । 'चेहरों के सांचे' और 'माथे पर बिन्दिया लिये एक भी महिला' का न होना ! भारत , पाकिस्तान और बांग्लादेश के चेहरों के साँचों में अन्तर ! दिलीप भाई कभी स्पष्ट करेंगे । बिन्दिया वाली बात पर मेरी पत्नी डॉ.स्वाति ने कहा कि हिन्दू महिलाएं बिन्दी न लगाना अशुभ मानती हैं और इसीलिए मुस्लिम महिलाएं लगाना । इससे लगा कि क्या यह कोई धार्मिक फर्क है ? खोज शुरु की तो पता चला कि खोजा मुस्लिम महिलाएं ,बांग्लादेशी मुस्लिम महिलाएं तथा कर्नाटक की मुस्लिम महिलाएं तो व्यापक तौर पर बिन्दी लगाती हैं । फिर पाकिस्तानी पंजाबी गीत मिले बिन्दिया वाले और बांग्लादेशी भी । पाकिस्तान में एक अभिनेत्री का नाम भी बिन्दिया है । फिल्मी दाएरे से ऊपर उठने पर रूहानी और आध्यात्मिक पुट लिए - 'छाप तिलक सब छीनी रे,मों से नैना मिलाइके' तो भारत-पाक दोनों देशों में गाया जाता है ।
अब इससे उलट बात की पुष्टि करने की सोची - क्या भारतीय फिल्मों की नायिकाएं अनिवार्य तौर पर बिन्दी लगाती हैं? दो पसन्दीदा नए गीतों को सुना/देखा । दोनों की हिरोइनें बिना बिन्दी लगाए थीं । बिन्दी का मामला सांस्कृतिक प्रतीत हुआ , धार्मिक से ज्यादा ।
दो बांग्लादेशी गीत (सबीना यास्मीन और सलमा अख़्तर के विडियो );
पाकिस्तानी पंजाबी गीत :
और भारतीय फिल्म 'कभी अल्विदा न कहना' तथा 'लाइफ़ इन ए मेट्रो ' के गीत :
Saturday, August 23, 2008
एक विडियो पहेली
गीत कैसा लगा ? यह गीत किसने गाया है ? किस फिल्म का है ?दूसरे और तीसरे प्रश्न के उत्तर वाली टिप्पणियाँ २५ अगस्त को प्रकाशित होंगी ।
लचक - लचक चलत मोहन
जन्माष्टमी के अवसर पर इसे झेल जाँए ।
एरी दैय्या , लचक लचक चलत मोहन, आवे,मन भावे
अधर अधर ,मधुर मधुर ,मुख से बंसी बजावे दैय्या ।
श्रवण कुण्डल ,चपल तोय ,मोर-मुकुट ,चन्द्र किरन
मन्द हसत, जीया में बसत ,सूरत मन रिझावे दैय्या॥
Friday, August 22, 2008
'शाम' पर चार मधुर फिल्मी गीत
हुई शाम उनका खयाल आ गया - मेरे हमदम मेरे दोस्त
रोज शाम आती थी - इम्तेहान
दिन ढल जाए - गाइड
वो शाम कुछ अजीब थी - ख़ामोशी
Wednesday, August 20, 2008
हिन्दुस्तानी शास्त्रीय रागों के नमूने : डी .वी. पलुस्कर
Tuesday, August 19, 2008
भजन / पलुस्कर / ई-स्वामी के नाम
इस बार यह भजन विडियो के रूप में मिले थे , जिन्हें मैंने डाउनलोड किया रियल प्लेयर की मदद से । इससे मैं उन्हें बिना व्यवधान ( बफ़रिंग की वजह से ) सुन सकता हूँ । यूट्यूब वाले कई बार विडियो हटा देते हैं , तब भी आप द्वारा प्रकाशित विडियो अन्तर्ध्यान हो जाता है । इसके बाद मैं परेशान रहा कि इन्हें अपने चिट्ठे पर चढ़ाने की क्या तकनीक हो , उपाय हो ? 'ब्लॉगर' वाले लम्बे - लम्बे ब्लॉगर आई.डी दे कर 'समर्थन' से सम्पर्क का उपदेश दे रहे थे । इसी बीच हिन्दी चिट्ठेकारी की प्रणेताओं में एक श्री ई-स्वामी ने मुझे इसका समाधान बताया । प्रयोग उन्हींके नाम समर्पित है ।
प्रस्तुति पर राय विशेष रूप से आमंत्रित है ।
Monday, August 18, 2008
मीयाँ की मल्हार में व्यंग्य
शास्त्रीय संगीत पर आधारित व्यंग्य ! मुझे लगता है उत्कृष्ट व्यंग्य के साथ उत्कृष्ट शास्त्रीय संगीत का मेल बैठाना अत्यन्त हूनरमन्द ही कर सकते हैं । ऐसे कभी कदाच ही मुमकिन होता है । मेरे होश में आने के बाद सुनील दत्त / किशोर कुमार बनाम महमूद (मन्ना डे) की पडोसन में हुई स्पर्धा ही इस श्रेणी में गिनी जाएगी ।
शंकर जयकिशन द्वारा संगीतबद्ध इस गीत में मन्ना डे के साथ किसी पक्के शास्त्रीय गायक के टुकड़े भी हैं । क्या वह पण्डित भीमसेन जोशी की आवाज है ? गीत मियाँ की मल्हार में है।
प्रकाश अरोड़ा द्वारा निर्देशित इस श्वेत - श्याम फिल्म बूट पॉलिश (१९५४) में बेबी नाज़ , रतन कुमार,चाँद बुर्के और चरित्र अभिनेता डेविड अब्राहम ने अभिनय किया है। रतन कुमार की चर्चा मैंने इस पोस्ट में की है । इस फिल्म को सर्वोत्तम फिल्म के लिए फिल्म फ़ेयर पुरस्कार मिला । केन्स फिल्म समारोह में बाल कलाकार के रूप में बेबी नाज़ के उत्कृष्टअभिनय का विशेष उल्लेख किया गया । डेविड को सर्वोत्तम सहायक अभिनय के लिए फिल्म फेयर पुरस्कार मिला था। विडियो यहां देखें ।
Sunday, August 17, 2008
ये गलियों के आवारा बेकार कुत्ते : फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
उर्दू के क्रान्तिकारी कवि फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की यह छोटी-सी , सरल किन्तु सशक्त कविता इस विडियो में अनवर क़ुरैशी द्वारा पढ़ी गयी है । सुनते/देखते हुए इन दोनों मुल्कों की सामाजिक और सियासी छबियाँ भी तिरने लगती हैं ।
Friday, August 15, 2008
दो बाल फिल्मी गीत बापू पर
Wednesday, August 13, 2008
रात पिया के संग जागी रे सखी/जाँनिसार अख़्तर/मीनू पुरुषोत्तम
Tuesday, August 12, 2008
'रामू तो दिवाना है'/सुमन कल्याणपुर
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Saturday, August 9, 2008
सुने री मैंने निर्बल के बल राम/पलुस्कर/भैरवी
Thursday, August 7, 2008
सावन ,बरखा,मेघ,बिजुरिया के गीत नए भी हैं
आज ऐसे कुछ दुर्लभ गीत प्रस्तुत हैं । सरदारी बेगम , आरती टिकेकर , हरिहरन और मन्ना डे जैसे कलाकारों के स्वर में ।
एक से बढ़कर एक नगीने चुन कर लाये हैं ज़नाब.
आरती तिकेकर का गाया घिर घिर आये बदरिया तो मेरा बेहद मनपसंद गीत है.
- मैथिली
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मैथिलीजी , आभार आरती टिकेकर का नाम बता कर। अंतिम गीत मन्ना डे का है।
- अफ़लातून
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प्रीति सागर और आरती अंकलीकर के गाए और आपके द्वारा प्रस्तुत वर्षा-गीत तो मेरे भी पसंदीदा गीत हैं . इन सदाबहार गीतों को पुनः सुनवाने के लिए आभार ! - प्रियंकर
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wah wah kya baat hai...itii badhiya post..aanandum aanandum...aabhaar
Parul
aur manna dey ke is geet ki jitni taareef ki jaye kum hai...
-Parul
Wednesday, August 6, 2008
Monday, August 4, 2008
झमकी झुकी आई बदरिया / डॉ. अनीता सेन
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Sunday, August 3, 2008
Friday, August 1, 2008
गाना माने प्यार करना, हाँ कहना , उड़ना और ऊँचे उड़ना
पिछले हिस्से से आगे : सभा जोन बाएज़ द्वारा संचालित अहिंसा प्रशिक्षण केन्द्र में थे । सेनफ्रान्सिस्को तथा आसपास के कई जवान आये थे । दो - तीन घण्टे तक मुझसे प्रश्नोत्तरी चलती रही ।
सभा के बाद मुझसे कहा गया कि जोन तो अपने घर चली गयी है , लेकिन शाम को अपने यहाँ आने का निमत्रण दे गई है ।
एक पहाड़ी पर जोन और डेविड का घर था । डेवि्ड तो अभी जेल काट रहा था । जोन उसके जेल जाने के बारे में कहानियाँ कह और गाने गाकर लोगों को युद्ध का विरोध सिखाती थी । जोन के पेट में बच्चा था , जिसका वह बहुत गर्व अनुभव करती थी । किसी बालक की-सी सरलता से वह अपना पेट मित्रों को दिखाती रहती थी ।
बात तो कोई खास करने की थी ही नहीं । लेकिन उन दिनों जोन के साथ जेकी नामक एक जवान रहता था । उसने मुझे प्रश्न पूछना शुरु किया । योग के बारे में , ध्यान के बारे में , भारत के बारे में कई प्रश्न पूछ डाले । मेरे जवाबों को जोन ध्यान से सुनती रही ।
जेकी जब कहीं बाहर गया तब जोन ने कहा : " यह लड़का तुम्हें फिजूल के प्रश्न पूछ कर तंग करता है , नहीं ?" मैंने कहा : उसके प्रश्न उसके लिए तो वास्तविक मालूम हो रहे हैं । हाँ , मेरे जवाबों से उसे संतोष होता होगा या नहीं , मैं नहीं जानता । " उसने मुझे पूछा : "तुम इस समय का क्या उपयोग करना चाहोगे ? " मैंने कहा : "संगीत।"
अपना गिटार थमाते हुए जोन ने कहा : "तुम गाओगे?"
मैंने कहा : "क्या संगीत गाया ही जाता है , सुना नहीं जाता ?"
वह हँस पड़ी और फिर गिटार के तार ठीक करने लग गयी । यह गिटार एक बार कोई चुरा ले गया था । लेकिन फिर शायद यह मालूम होने पर कि यह जोन बाएज़ का है , वह लौटा दिया गया था ।
गाने के लिए जोन को आग्रह नहीं करना पड़ता । वह गाती रही । मैं सुनता रहा । मंत्र-मुग्ध-सा सुनता रहा । अपने संगीत से जोन लाखों लोगों को डुला देती है । मैं अपने भाग्य को सराह रहा था , जो इतने निकट बैठ कर इस संगीत का सुधा-पान कर रहा था ।
एक पूरी शाम इस अमरीकन मीराबाई के भजन सुनने में बितायी। जाने से पहले उसने पूछा : "तुम क्या लोगे? कुछ खाओगे,कुछ पीओगे ?" इसे मैं क्या बताता ? क्या पेट भरना अब भी बाकी था? मैंने कहा:" खाना - पीना तो कुछ नहीं, लेकिन अगर माँग सकता हूँ तो तुम्हारा एक रेकार्ड दे दो ।" तुरंत उसने एक बदले दो रेकार्ड दे दिए ।उस पर अपने हस्ताक्षर भी कर दिए । एक रेकार्ड के कवर पर जोन बायेज़ का खुद का आँका हुआ चित्र है । जोन का पूरा व्यक्तित्व ही कलाकार का है। वह कलापूर्ण लिखती है , कलापूर्ण कविता बनाती है । और कलाकारों से इसमें कोई विशेषता हो तो वह यह है कि इसकी कला का एक उद्देश्य है मानव की मुक्ति । इसी कारण से वह शांतिवादी बनी है । इसी कारण वह संगीत के जलसे छोड़कर जेलखाने के चक्कर काटना पसंद करती है ।
उसका जीवन - चरित्र 'डे-ब्रेक' एक अनुपम कलाकृति है । देखिये शुरु के ही एक अध्याय में बालवाड़ी का यह दृश्य :"माँ कहती है कि बालवाड़ी से जब मैं पहले दिन लौटी , तब आते ही मैंने कहा कि मैं किसीके प्रेम में हूँ । मुझे एक जापानी लड़का याद है , जिसने मेरा ख्याल रखा और जिसने किसीके धक्के से मुझे बचाया था। जब लोगों ने मुझे खाने के लिए सेम दिए , तब मैंने उससे कहा कि इसको खाने से तो मुझे कै ही हो जाएगी । तब उसने मेरे लिए सेम को टेबुल के नीचे छिपा दिया था ।
" एक सेंट बर्नार्ड कुत्ते ने एक दिन मुझसे खेलना चाहा और उसने मुझे एक टीले से नीचे ढकेल दिया। मैं इतनी घबड़ा गयी कि मेरा पैण्ट ही गीला हो गया ।"
" एक लड़का था , जो मेरे साथ बैठकर दूध पीता था । वह फूल बहुत बीनता था। मैं हमेशा उसके सिर पर हाथ फेरना चाहती थी । बच्चे उसे लड़की-लड़की कहकर पुकारते थे ।"
या उस किताब का देखिये यह एक छोटा-सा अध्याय :
" गाना माने प्यार करना , हाँ कहना , उड़ना और ऊँचे उड़ना , सुननेवाले लोगों के हृदय में किनारे पर पहुँच जाना , उनसे यह कहना कि जीवन जीने के लिए है : प्यार है , कोई केवल वचन नहीं है , सुन्दरता अस्तित्व रखती है और उसकी खोज करनी चाहिए और पाना चाहिए। मृत्यु एक ऐसे ऐश की चीज है , जिसे जीवन में उतारने की अपेक्षा जिसके गाने गाना ही उचित है । गाना माने ईश्वर की स्तुति करना और डेफ़ोडिल पुष्पों की स्तुति करना है । और ईश्वर की स्तुति का अर्थ है उसका आभार मानना मेरे मर्यादित स्वरों के हर सुर से , मेरे कंठ के हर रंग से , मेरे श्रोताओं के हर दृष्टिपात से। हे ईश्वर , मैं तेरी आभारी हूँ: मुझे जन्म देने के लिए , पवन में झूमते हुए इन डेफ़ोडिल पुष्पों को देखने के वास्ते मुझे नयन देने के लिए । मेरे सब भाइयों और बहनों का क्रंदन सुनने के वास्ते मुझे श्रवण देने के लिए , भागकर आने के वास्ते मुझे चरण देने के लिए , गीले गालों को सुखाने के वास्ते मुझे हाथ देने के लिए , हँसने के लिए और गाने के लिए मुझे कंठ देने के लिए , इसलिए कि मैं तुम्हारे लिए गा सकूँ और डेफोडिल के लिए भी गा सकूँ - क्योंकि पुष्प भी तू ही है ।"
संगीत की यह परिभाषा जोन बायेज़ के जीवन में प्रकट होती है । इसीलिए उसकी तुलना प्राचीन मीराबाई या अर्वाचीन शुभलक्ष्मी से हो सकती है ।
जाते समय मैंने उससे पूछा : :बच्चे के नाम के बारे में विचार किया है?"
उन लोगों ने दो वाद्यों के नाम सोच रखे थे । लड़का हो तो एक नाम , लड़की हो तो दूसरा।
उसने मुझे पूछा: "क्यों तुम्हारा कोई सुझाव है?"
मैंने कहा : " भारतीय नाम रखना हो तो 'शांति' रखो । लड़के के लिए भी चलेगा , लड़की के लिए भी । " .
Thursday, July 31, 2008
अशोक पाण्डे को समर्पित जोन बायेज़ पर पोस्ट
.... शाम को कार्मेल में जोन बायेज़ के माता - पिता के साथ ठहरा । उनके पिता तो इन्फ़्लुएन्जा के कारण बिछौने में थे। माता ने आते ही पूछा : "क्यों खाना-पीना किया या बाकी है ? मैं जानती ही थी कि तुम वेजिटेरियन होगे , इसलिए तुम्हारे लिए वेजिटेबल सूप तैयार रखा है ।"
कौन कहता है मेरी माँ नहीं रही ? वह तो मुझे दर्शन देती है उत्तरी अमरीका के पश्चिमी कोने के इस छोटे से कार्मेल गांव में भी ।
जोन बायेज़ के पिता बड़े वैज्ञानिक हैं । उनकी बीमारी के कारण उनसे अधिक बातें करने का मौका नहीं मिला । सारा घर ग्रामोफोन रेकार्ड तथा किताबों से भरा हुआ । सिर्फ मिस्टर बायेज़ का दफ़्तर बहुत व्यवस्थित था। श्री बायेज़ से एक किस्सा सुना। युनेस्को के काम के सिलसिले में वे रूस गये हुए थे किसी प्रतिनिधि-मंडल के साथ । उनके नाम में बायेज़ देखकर लोग पूछने लगे कि क्या आप जोन बायेज़ के कोई रिश्तेदार तो नहीं हैं ? पुत्री के नाम से अपना परिचय होते हुए देखकर इस विख्यात वैज्ञानिक ने बड़ा सन्तोष अनुभव किया होगा।
पुत्री से भेंट तो दूसरे दिन होने वाली थी । इस दिन तो उसकी माँ से ही परिचय करना था । माँ ने और कुछ नहीं किया होता और सिर्फ जोन को जन्म दिया होता तो भी वह धन्य हो जाती। लेकिन इस माँ ने तो जोन को संस्कार भी दिए थे । अपनी जीवन-कथा 'डे-ब्रेक' में जोन ने इसे बखूबी लिखा है । कैसे बचपन के जोन के भय के संस्कार श्रीमती बायेज़ ने प्रेम और धीरज दे-देकर मिटाये , कैसे एक साल तक छुट्टी पाने पर उस समय में जोन की सारी अभिव्यक्ति को प्रकाश मिला , कैसे उन्होंने जोन के साथ दो बार जेल में जाकर अन्य स्त्रियों का कारावास-भय मिटाया इत्यादि । रात को मुझे उसी खटिये पर सुलाया गया , जहाँ जोन आने पर सोती है । रातभर श्री बायेज़ पास के कमरे में खाँसते रहे । और जब तक जागा मैं इस जोड़े के बारे में सोचता रहा , जिसने अमरीका की सबसे प्रसिद्ध गायिका- या सबसे प्रसिद्ध शान्तिवादी ? - जोन बायेज़ को जन्म दिया था ।
दूसरे दिन जब पालो आल्टो में कई और लोगों के साथ जोन बायेज़ का भी परिचय कराया गया , तब कुछ क्षण तो मैं उसे पहचान ही न पाया । उसके दो कारण थे । एक तो , जोन ने अपने लम्बे बाल कटवा लिये थे । और दूसरा , परिचय करानेवाले ने मिसेज बायेज़ हेरिस कहकर उसका परिचय दिया था। चित्र में देखी हुई जोन लंबे बालवाली थी और मैं तो यह भूल ही गया था कि डेविड हेरिस नामक एक शांतिवादी से उसकी शादी हो चुकी थी।
लेकिन जब सहज ही उसके इर्द-गिर्द प्रशंसकों की भीड़ होने लग गयी , तब मैं अचानक समझ गया कि यही जोन बायेज़ थी ।
आमतौर पर अमरीका में सभा का आरंभ गीतों से नहीं होता । लेकिन मेरी प्रार्थना को उसने बिना किसी आग्रह के स्वीकार कर लिया। क्या अदभुत् कण्ठ है ! जितना मधुर उतना ही बुलंद। जितना दर्द उतना ही कंप । सुर किसी निर्झर की सहजता से बहते थे , किन्तु साथ ही यह भी पता चलता था कि इसके पीछे बरसों की साधना थी ।
[ जारी ]
Monday, July 28, 2008
'साज़ और आवाज़' की याद में
बहरहाल आगाज़ में आज हम साज और आवाज की स्मृति में काश्मीर की कली फिल्म का लोकप्रिय गीत दीवाना हुआ बादल पेश कर रहे हैं । मूल गीत के साथ कोलकाता के सुमन्त द्वारा माउथ ऑर्गन पर बजाई गई इस धुन को भी सुनना न भूलें। सुमन्त ३१ वर्ष के हैं और पिछले १७ वर्षों से शौकिया माउथ ऑर्गन बजा रहे हैं। पेशे से वे वेब डिज़ाइनर हैं ।
Wednesday, July 23, 2008
Sunday, July 20, 2008
कैसे उनको पाऊँ ,आली/ महादेवी वर्मा /आशा भोंसले/जयदेव
यहाँ प्रस्तुत है उस संग्रह से महादेवी वर्मा का गीत - कैसे उनकों पाऊँ , आली
Friday, July 18, 2008
Tuesday, July 15, 2008
जलते हैं जिसके लिए तेरी आंखों के दीए
जलते हैं जिसके लिए , तेरी आंखों के दीए,
ढूंढ़ लाया हूं वही गीत मैं तेरे लिए ।
दिल में रख लेना इसे हाथों से ये छूटे न कहीं ,
गीत नाज़ुक हैं मेरे शीशे से भी टूटे न कहीं ,
गुनगुनाऊँगा वही गीत मैं तेरे लिए ॥
जब तलक न ये तेरे रस के भरे होटों से मिलें,
यूँ ही आवारा फिरें , गायें तेरी ज़ुल्फ़ों के तले ,
गाए जाऊँगा वही गीत मैं तेरे लिए ॥
Jalte Hain Jiske L... |
Monday, July 7, 2008
चाँद अकेला जाये सखी री, येसुदास ,आलाप
chaand akela, yesu... |
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Saturday, July 5, 2008
मुजफ़्फ़र अली की 'गमन' के गीत
Friday, July 4, 2008
पलुस्कर का मधुर गायन
उनके भजन तथा उस्ताद अमीर खान साहब के साथ बैजू बावरा फिल्म में जुगलबन्दी भी अत्यन्त प्रसिद्ध हैं।
३४ वर्ष की अल्पायु में मस्तिष्क ज्वर से उनकी मृत्यु हुई।
'आगाज़' के सुधी श्रोता इस अमर गायक के गायन का रसास्वादन करेंगे ।
Friday, June 27, 2008
तीन बेर खाता था ,सिर्फ़ मैक्डॉनाल्ड के मेनू से, महीने भर !
पूरी फ़िल्म ( एक घण्टा , उन्तालिस मिनट ,सत्ताइस सेकण्ड की फिल्म) यहाँ देखें और अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करें ।
Monday, June 2, 2008
गीता दत्त और लताजी के सुहाने गीत
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कुछ अत्यन्त मधुर गीत । कुछ लता मगेशकर के , कुछ गीता दत्त के । संग्रह लाजमीतौर पर मेरी पसन्द का है। आप सबकी राय अपेक्षित है।
Saturday, May 24, 2008
मुन्ना बड़ा प्यारा
मुन्ना बड़ा प्यारा, अम्मी का दुलारा
कोई कहे चाँद, कोई आँख का तारा
हँसे तो भला लगे, रोये तो भला लगे
अम्मी को उसके बिना कुछ भी अच्छा ना लगे
जियो मेरे लाल, जियो मेरे लाल
तुमको लगे मेरी उमर जियो मेरे लाल
मुन्ना बड़ा प्यारा ...
इक दिन वो माँ से बोला क्यूँ फूँकती है चूल्हा
क्यूँ ना रोटियों का पेड़ हम लगालें
आम तोड़ें रोटी तोड़ें रोटी\-आम खालें
काहे करे रोज़\-रोज़ तू ये झमेला
अम्मी को आई हंसी, हँसके वो कहने लगी
लाल मेहनत के बिना रोटी किस घर में पकी
जियो मेरे लाल, जियो मेरे लाल
ओ जियो जियो जियो जियो जियो मेरे लाल
मुन्ना बड़ा प्यारा ...
एक दिन वो छुपा मुन्ना, ढूँढे ना मिला मुन्ना
बिस्तर के नीचे, कुर्सियों के पीछे
देखा कोना कोना, सब थे साँस खींचे
कहाँ गया कैसे गया सब थे परेशां
सारा जग ढूँढ सजे, कहीं मुन्ना ना मिला
मिला तो प्यार भरी माँ की आँखों में मिला
जियो मेरे लाल, जियो मेरे लाल
ओ तुमको लगे मेरी उमर जियो मेरे लाल
मुन्ना बड़ा प्यारा ...
जब साँझ मुस्कुराये, पश्चिम में रंग उड़ाये
मुन्ने को लेके अम्मी दरवाज़े पे आ जाये
आते होंगे बाबा मुन्ने की मिठाई
लाते होंगे बाबा ...
Thursday, May 22, 2008
उडुपि हिन्दी पत्रिका और 'ऐ मेरे प्यारे वतन'
बहरहाल , रमेश नायक की चर्चा हम उनके हिन्दी चिट्ठे के कारण कर रहे हैं । उडुपि हिन्दी पत्रिका अप्रैल २००७ से एक चिट्ठे के रूप में शुरु हुई है । यहाँ उनके चिट्ठे पर दी गयी रवीन्द्रनाथ ठाकुर की प्रसिद्ध कहानी 'काबुलीवाला' की कड़ी दी गयी है । पाठकों से गुजारिश है कि उनके चिट्ठे पर टीप कर उन्हें प्रोत्साहित करें ।
१९६१ में इस कहानी पर आधारित हिन्दी फिल्म बनी जिसमें बलराज साहनी , उषा किरन और सोनी मुख्य पात्र थे । संगीत सलिल चौधरी का और गीत गुलज़ार के थे । फिल्म में दो गीत मेरे अत्यन्त प्रिय हैं : बंगाल के भटियाली धुन पर - 'गंगा आए कहाँ से' । साथी अशोक पाण्डे ने इसे यहाँ प्रस्तुत किया था । स्वर हेमन्त कुमार का है ।
दूसरा गीत मन्ना डे ने गाया है । दोनों गीतों के बोल प्रस्तुत हैं :
१
ऐ मेरे प्यारे वतन, ऐ मेरे बिछड़े चमनतुझ पे दिल क़ुरबान
तू ही मेरी आरज़ू, तू ही मेरी आबरूतू ही मेरी जान
(तेरे दामन से जो आए उन हवाओं को सलाम
चूम लूँ मैं उस ज़ुबाँ को जिसपे आए तेरा नाम ) - २
सबसे प्यारी सुबह तेरीसबसे रंगीं तेरी शामतुझ पे दिल क़ुरबान ...
(माँ का दिल बनके कभी सीने से लग जाता है तू
और कभी नन्हीं सी बेटी बन के याद आता है तू ) - २
जितना याद आता है मुझकोउतना तड़पाता है तू तुझ पे दिल क़ुरबान ...
(छोड़ कर तेरी ज़मीं को दूर आ पहुंचे हैं हमफिर भी है ये ही तमन्ना तेरे ज़र्रों की क़सम ) - २
हम जहाँ पैदा हुएउस जगह पे ही निकले दम
तुझ पे दिल क़ुरबान ...
२
गंगा आये कहाँ से, गंगा जाये कहाँ रेआये कहाँ से,
जाये कहाँ रे लहराये पानी में जैसे धूप-छाँव रेगंगा आये कहाँ से, गंगा जाये कहाँ रे
लहराये पानी में जैसे धूप-छाँव रे
रात कारी दिन उजियारा मिल गये दोनों साये
साँझ ने देखो रंग रुप्प के कैसे भेद मिटाये
लहराये पानी में जैसे धूप-छँव रे ...
काँच कोई माटी कोई रंग-बिरंगे प्याले
प्यास लगे तो एक बराबर जिस में पानी डाले
लहराये पानी में जैसे धूप-छाँव रे ...
नाम कोई बोली कोई लाखों रूप और चेहरे
खोल के देखो प्यार की आँखें सब तेरे सब मेरे
लहराये पानी में जैसे धूप-छाँव रे ...
Wednesday, May 21, 2008
भाई का संगीत , बहन का मीठा स्वर
आगाज़ के रसिक श्रोताओं के लिए फिल्म अनुभव का यह गीत पेश है :
मेरी जाँ , मुझे जाँ न कहो मेरी जाँ
मेरी जाँ , मेरी जाँ,
जाँ न कहो अनजान मुझे
जान कहाँ रहती है सदा
अनजाने क्या जाने
जान के जाए कौन भला ॥
सूखे सावन बरस गये,
कितनी बार इन आँखों से।
दो बूँदें न बरसे,
इन भीगी पलकों से ॥
होंठ झुके जब होंठों पर
साँस उलझी हो साँसों में ।
दो जुड़वा होंठों की
बात कहो आँखों से ॥
( कृपया पहली बार यू ट्यूब को बफ़रिंग करने दें ,दूसरी बार में बिना व्यवधान सुनें,देखें । )
Tuesday, May 20, 2008
फ़िराक की गज़ल , चित्रा सिंह की आवाज़
Monday, May 19, 2008
एक मधुर दोगाना
आप को प्यार छुपाने की बुरी आदत है , आप को प्यार जताने की बुरी आदत है ।
आप ने सीखा है क्या दिल को लगाने के सिवा ?
आप को आता है क्या, नाज़ दिखाने के सिवा ?
और हमें नाज़ उठाने की बुरी आदत है ॥
किसलिए आप ने शर्मा के झुका ली आँखें,
किसलिए आप से घबरा के बचा ली आँखें ?
आप को तीर चलाने की बुरी आदत है ॥
Friday, May 16, 2008
'मैं तो हूँ जागी , मेरी सो गयी अँखिया'
अजब दिवानी भयी, मोसे अनजानी भयी,पल में परायी देखो हो गयी अखियाँ।।
बरसी ये कैसी धारा , काँपे तन मन सारा ।
रंग से अंग भिगो गयी अखियाँ ॥
मन उजियारा छाया , जग उजियारा छाया ।
जगमग दीप सँजो गयी अखियाँ ॥
पडित रविशंकर द्वारा संगीतबद्ध फिल्म अनुराधा का यह गीत लता मंगेशकर का गाया हुआ है ।
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Sunday, May 11, 2008
महान देशभक्त और नेता ( ज़फ़र): ले. सुभाषचन्द्र बोस
इस साल के आयोजन के साथ यह असाधारण , शायद दैवी संयोग था कि सम्राट बहादुरशाह की पुण्य तिथि और 'नेताजी सप्ताह' एक साथ पड़े हैं । 'नेताजी सप्ताह' के दौरान समूचे पूर्वी एशिया में रहने वाले भारतीय भारतीयों ने मुकम्मिल आज़ादी हासिल करने तक अपनी लड़ाई जारी रखने का विधिवत संकल्प लिया है । यह दैवी संकेत है कि आज़ादी के जंग के पहले सेनापति की समाधि का स्थल भारत की आज़ादी की आखिरी जंग का मुख्य केन्द्र है । इसी पवित्र अड्डे से हमारी अपनी मातृभूमि की ओर अग्रसर है । आज़ाद हिन्द फौज की आनुष्ठनिक कवायद में इसी स्थान पर पुन: जुट कर हम अपने संकल्प की आंशिक पूर्ति की खुशी महसूस करने के साथ-साथ भारत की भूमि को अनचाहे अंग्रेजों से निजात दिलाने तक अनवरत संघर्ष के लिए कमर-कस कर तैयार हो रहे हैं ।
यहाँ १८५७ के घटनाक्रम पर एक नज़र डालना वाजिब होगा । अंग्रेज इतिहासकारों ने १८५७ की लड़ाई के बारे में यह दुष्प्रचार कर रखा है कि वह अंग्रेज फौज में सेवारत भारतीय सैनिकों का विद्रोह-मात्र था । हकीकत है कि वह एक कौमी इन्कलाब था जिसमें भारतीय सैनिकों के साथ-साथ नागरिकों ने भी शिरकत की थी । इस राष्ट्रव्यापी जंग में कई राजा शरीक हुए जबकि यह दुर्भाग्यपूर्ण रहा कि कई राजा खुद को दरकिनार किए रहे । इस जंग के शुरुआती दौर में कई फतह हुईं , अन्तिम दौर में ही बड़ी ताकत के बल पर हमें पराजित किया गया ।किसी क्रान्ति की तवारीख़ में ऐसा होना बिलकुल असामान्य नहीं है ।दुनिया के इतिहास में यह मुश्किल से मिलेगा जब क्रान्ति पहले संघर्ष में ही कामयाब हो गयी हो । "आज़ादी की लड़ाई एक बार आरम्भ होती है तो पुश्त-दर-पुश्त चलती है " । बवक्तन यदि इंकलाब नाकामयाब भी होता है या दबा दिया जाता है तब भी उसके कुछ सबक हासिल होते हैं । आगे आने वाली पीढ़ियाँ इन सबक को लेकर अपनी लड़ाई ज्यादा असरकारक तरीके से , ज्यादा तैयारी के साथ फिर से खड़ी करती हैं । हम ने १८५७ की नाकामयाबी से सबक लिया है और इस तजुर्बे का इस्तेमाल भारत की आज़ादी की इस आखिरी जंग में किया है ।
यह सोचना भूल होगी कि १८५७ में एक दिन अचानक लोगों ने अंग्रेजों के खिलाफ़ हथियार उठा लिए । कोई भी क्रान्ति जल्दबाजी में या अललटप्पू तरीके से नहीं लायी जाती है । १८५७ के हमारे रहनुमाओं ने अपने तईं पूरी तैयारी की थी , लेकिन अफ़सोस कि वह पर्याप्त नहीं थी । उस पवित्र युद्ध के एक प्रमुख नेता नाना साहब ने मदद और सहयोग हासिल करने के मक़सद से युरोप तक की यात्रा की थी । दुर्भाग्यवश उन्हें इस कोशिश में कामयाबी हासिल नहीं हुई और नतीजतन १८५७ में जब क्रान्ति शुरु हुई , तब अंग्रेजों का बाकी दुनिया से कोई झगड़ा नहीं था और वे अपनी पूरी ताकत और संसाधन हिन्द के लोगों को कुचलने में लगा सके । मुल्क की भीतर जनता और भारतीय सैनिकों के बीच काबिले गौर होशियारी के साथ गुप्त सन्देश प्रचारित कर दिये गये थे । इस वजह से संकेत होते ही देश के कई हिस्सों में एक साथ लड़ाई शुरु हो सकी । फ़तह पर फ़तह हासिल होती गयी । उत्तर भारत के महत्वपूर्ण शहर अंग्रेजों के चंगुल से मुक्त हो गये तथा उनमें इन्कलाबी फौज ने जीत का परचम लहराया । अभियान के पहले चरण में हर जगह इन्कलाब को कामयाबी मिली । दूसरे चरण में जब दुश्मन का जवाबी हमला शुरु हुआ तब हमारे सैनिक टिक न सके । तब ही यह पता चला कि क्रान्तिकारियों ने एक राष्ट्रव्यापी रणनीति नहीं बनाई थी तथा उस रणनीति के संचालन और समन्वय के लिए एक गतिमान नेता का अभाव था । देश के कई भागों के राजा निष्क्रीय और उदासीन रहे । बहादुरशाह ने इस बाबत जयपुर , जोधपुर , बिकानेर , अलवर आदि के राजाओं को लिखा :
" मेरी प्रबल आरज़ू है कि अंग्रेज किसी भी कीमत पर , किन्हीं भी उपायों से हिन्दुस्तान से खदेड़ दिए जाँए । मेरी उत्कट कामना है कि समूचा हिन्दुस्तान आज़ाद हो । इस उद्देश्य से छेड़ा गए इन्कलाबी युद्ध के माथे पर विजय का सेहरा तब तक बँध नहीं सकता जब तक ऐसा कोई व्यक्ति सामने नहीं आता जो पूरी तहरीक की जिम्मेदारी अपने कन्धों पर ले सके , राष्ट्र की विभिन्न शक्तियों को संगठित कर सके तथा पूरी जनता को इस जागृति के दौरान राह दिखाये । अंग्रेजों को हटाने के बाद भारत पर राज करने की मेरी कोई तमन्ना नहीं है । आप सभी अपनी म्यानों से तलवार खींच कर दुश्मन को भगाने के लिए तैयार हो जाँए तब मैं तमाम शाही-हकूक भारतीय राजाओं के संघ के हक़ में छोड़ने के लिए तैयार हूँ । "
यह ख़त बहादुरशाह ने अपने हाथ से लिखा था । देशभक्ति और त्याग की भावना से सराबोर इस पत्र को पढ़कर हर आज़ादी-पसन्द हिन्दुस्तानी का सिर प्रशंसा और अदब से झुक जाएगा ।
बहादुरशाह बूढ़े और कमजोर हो चुके थे और इसलिए उन्हें लगा कि खुद इस जंग का संचालन करना उनके बूते के बाहर होगा । उन्होंने छ: सदस्यीय समिति गठित की जिसमें तीन सेनापति और तीन नागरिक-प्रतिनिधि थे । इस समिति को पूरे अभियान को संचालित करने की जिम्मेदारी दी गई । उनके द्वारा किए गए तमाम प्रयास निष्फल रहे क्योंकि भारत की पूर्ण आजादी के लिए परिस्थितियाँ परिपक्व नहीं हुई थीं ।
एक और तथ्य इस बुजुर्ग नेता के इन्कलाबी जज़्बे और जोश का द्योतक है । उत्तर प्रदेश के बरेली शहर की दीवारों पर अंकित बहादुरशाह का यह फ़रमान गौरतलब है :
" हमारी इस फौज में छोटे-बड़े का भेद भूलकर बराबरी के आधार को नियम माना जाएगा चूँकि इस पाक जंग में तलवार चलाने वाला हर शक्स समान रूप से प्रतापी है । इसमें शामिल सभी लोग भाई-भाई हैं , उनमें अलग-अलग वर्ग नहीं होंगे । इसलिए मैं अपने सभी हिन्दुस्तानी भाइयों से आह्वान कर रहा हूँ जागो तथा दैवी आदेश और सर्वोच्च दायित्व का निर्वाह करने के लिए रण भूमि में कूद पड़ो । "
मैंने इन तथ्यों का हवाला इसलिए दिया है ताकि आप यह जान सकें कि मौजूदा आज़ाद हिन्द फौज की बुनियाद १८५७ में पड़ चुकी थी । आज़ादी की इस आखिरी जंग में हमें १८५७ की जंग और उसकी खामियों से सबक लेना होगा ।
इस बार दैव-योग हमारे पक्ष में है । शत्रु कई मोर्चों पर जीवन-मृत्यु के संघर्ष में उलझा हुआ है । देश की जनता पूरी तरह जागृत है । आज़ाद हिन्द फौज एक अपराजेय शक्ति है और उसके सभी सदस्य अपने राष्ट्र की मुक्ति के साझा प्रयत्न के लिए एकताबद्ध हैं । पूर्ण विजय हासिल करने तक चलने वाले इस अभियान के लिए हम एक दूरगामी साझा रणनीति से लैस हैं । हमारा आधार-अड्डा अच्छी तरह संगठित है और सबसे महत्वपूर्ण है कि अपना जौहर दिखाने की प्रेरणा के लिए हमारे पास बहादुरशाह की यादें और मिसाल है । अंतिम विजय हमारी होगी इसमें क्या कोई शक रह जाता है ?
जब मैं १८५७ के घटनाक्रम का अध्ययन करता हूँ और क्रान्ति के विफल हो जाने के बाद अंग्रेजों द्वारा ढाये गए जुल्म और सितम को याद करता हूँ तब मेरा खून खौल उठता है । अगर हम मर्द हैं , तब १८५७ और उसके बाद के वीरों पर अंग्रेजों द्वारा ढाये गए जुल्म और बर्बरता का पूरा बदला ले कर रहेंगे । अंग्रेजों ने निर्दोष व आज़ादी पसन्द हिन्दुस्तानियों का खून न सिर्फ युद्ध के दौरान बहाया बल्कि उसके बाद भी अमानवीय अत्याचार किए । उन्हें इन अपराधों की कीमत चुकानी होगी । हम भारतीय, शत्रु से पर्याप्त घृणा नहीं करते ।यदि आप चाहते हैं कि आपके देशवासी अतिमानवीय साहस और शौर्य की ऊँचाइयों को छू सकें तब आपको उन्हें देश के प्रति प्रेम के साथ - साथ शत्रु से घृणा करना भी सिखाना होगा ।
इसलिए मैं खून माँगता हूँ । शत्रु का खून ही उसके अपराधों का बदला चुका सकता है । किन्तु हम खून तब ही ले सकते हैं जब खून देने के लिए तैयार हों । इस युद्ध में बहने वाला हमारे वीरों का खून ही हमारे किए पापों को धो डालेगा । हमारा आगामी कार्यक्रम खून देने का है । हमारी आजादी की कीमत हमारे वीरों के खून की कीमत है । हमारे वीरों के खून , उनकी बहादुरी और पराक्रम ही भारत की जनता द्वारा ब्रिटिश आतताइयों और जुल्मियों से बदला लेने की माँग पूरा करना सुनिश्चित करेंगे ।
वृद्ध बहादुरशाह ने पराजय के बाद इसी पैगम्बरी अन्तर्दृष्टि के साथ कहा था :
" गाजियों में बू रहेगी , जब तलक ईमान की,
तख़्ते लन्दन तक चलेगी , तेग हिन्दुस्तान की । "
जय हिन्द
Tuesday, April 29, 2008
कहाँ से आए बदरा : इंदु जैन:येशू दास हेमंती शुक्ला
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कहाँ से आए बदरा
घुलता जाए कजरा
पलकों के सतरंगे दीपक
बन बैठे आँसू की झालर
मोती का अनमोलक हीरा
मिट्टी में जा फिसला ॥
नींद पिया के संग सिधारी
सपनों की सुखी फुलवारी
अमृत होठों तक आते ही
जैसे विष में बदला ॥
उतरे मेघ या फिर छाये
निर्दय झोंके अगन बढ़ाये
बरसे हैं अब तोसे सावन
रोए मन है पगला ॥
Friday, April 25, 2008
हरि आवन की आवाज : मीरा बाई :सुब्बलक्ष्मी
यह चित्र विभाजन के बाद जल रही फिरकावाराना आग़ के दौरान दिल्ली में हो रहे प्रार्थना - प्रवचन का है । भजन गाने वाली महिलाओं में सब से बाँए, मीरा भजन गा रही हैं एम . एस . सुब्बलक्ष्मी । गाँधी जी के आग्रह पर सुब्बलक्ष्मी ने मीरा के भजन गाए । भक्ति आन्दोलन के दौरान राजपुताना से चल कर मीरा बाई काशी आईं और सन्त रविदास की शिष्य बनीं । इस युग में सुब्बलक्ष्मी ने मीरा के भजनों को कर्नाटक संगीत की सुन्दर धुनें दीं और अपना मधुर स्वर । पूरब-पश्चिम , उत्तर-दक्षिण का अनूठा मेल हमारी सांस्कृतिक धरोहर है । प्रस्तुत भजन में 'कोयलिया'-शब्द को अनेक बार दोहराते हुए सुब्बलक्ष्मी को गौर से सुनिएगा ।
Thursday, April 24, 2008
हाल - चाल ठीक - ठाक है : 'मेरे अपने'
'आपन जन ' नाम से यह फिल्म पहले बाँग्ला में बनी । युवा - आक्रोश की पृष्टभूमि में बनी इस फिल्म को गुलजार ने हिन्दी में निर्देशित किया 'मेरे अपने' नाम से । बतौर निर्देशक गुलजार की पहली फिल्म । मुख्य भूमिका में मीना कुमारी , विनोद खन्ना(शिक्षित युवा) और शत्रुघ्न सिन्हा(अशिक्षित युवा) थे । सलिल चौधरी के संगीत और गुलजार के बोल को मुकेश , किशोर कुमार और साथियों ने स्वर दिया इस फिल्म के एक गीत ने -
देश की तरुणाई , उसकी बेकारी ,भूख़, उसका आक्रोश और जनरेशन गैप की नुमाइन्दगी यह गीत बख़ूबी करता है । गीत के बोलवाले चित्र में एक पद गायब है ।
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