कल ही प्रिय मित्र प्रियंकर ने बताया कि उनका प्रिय एक गीत लाइफ़लॉगर खा गया ! गत मकर संक्रांति के दिन इस ब्लॉग पर एक पोस्ट इस विषय पर लिखी थी । तब इस बात का अन्दाज ही नहीं था कि लाईफ़लॉगर जैसी सेवा न केवल नये गीतों को चढ़ाने के लिए मृत है अपितु गैर-मंदी दौर में इस पर चढ़ाये गीत भी साईबर व्योम में डूब गये हैं । फलस्वरूप अच्छी भली पोस्ट गीत/कविता विहीन हो गयी हैं । उन पर भूले भटके जो भी पहुँचता होगा वह अब सिर्फ़ पाठक होगा श्रोता नहीं ! यह उसके साथ घोर अन्याय है।
अत: उन पोस्टों में पड़ी लाईफ़लॉगर की लाइफविहीन एम्बेडिंग कोड को हटा कर वैकल्पिक व्यवस्था कर दी गई है । इस मरम्मत को तरजीह दें,गुजारिश है ।
दरियाव की लहर : कबीर का गीत
हरीन्द्रनाथ चट्टोपाध्याय का एक हिन्दी गीत
शाम सहमी न हो , रात हो न डरी , भोर की आंख फिर डबडबायी न हो
बाकी मरम्मत फिर कभी ।
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