सारे जहाँसे अच्छा हिन्दोस्ताँ हमारा ।
हम बुलबुलें हैं उसकी , वह बोस्ताँ हमारा ॥ध्रु.॥
गुरबतमे हों अगर हम , रहता है दिल वतनमें ।
समझो वहीं हमें भी , दिल हो जहाँ हमारा ॥१॥
परबत वह सबसे ऊँचा , हमसाया आसमाँका ।
वह संतरी हमारा , वह पासबाँ हमारा ॥२॥
गोदीमें खेलती हैं , जिसकी हजारों नदियाँ ।
गुलशन है जिनके दम से , रश्के-जिनाँ हमारा ॥३॥
ए आबे-रूदे-गंगा , वह दिन है याद तुझको ।
उतरा तेरे किनारे , जब कारवाँ हमारा ॥४॥
मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना ।
हिन्दी हैं हम , वतन है हिन्दोस्ताँ हमारा ॥५॥
यूनान-ओ-मिस्र-ओ-रूमा , सब मिट गये जहाँ से ।
अब तक मग़र है बाकी , नामोनिशाँ हमारा ॥६॥
कुछ बात है कि हस्ती , मिटती नहीं हमारी ।
सदियों रहा है दुश्मन , दौरे – जमाँ हमारा ।।७॥
इक़बाल कोई महरम , अपना नहीं जहाँमें ।
मालूम क्या किसीको , दर्दे – निहाँ हमारा ॥८॥
- अल्लामा इक़बाल
बोस्ताँ = बाग , गुरबत = विदेश , परदेश
हमसाया = पड़ौसी , पासबाँ = रक्षा करने वाला ,
रश्के-जिनाँ = स्वर्ग को भी डाह हो जिनसे ,
महरम = भेद जानने वाला , दर्दे-निहाँ = छिपी हुई वेदना
सुषमा श्रेष्ठ द्वारा गाया ।
इस जनप्रिय ग़ज़ल को पढ़ना भी एक आंतरिक सुख देता है।
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क्या धरती की सारी कन्याएँ शुक्र की एजेंट हैं?
आप नहीं बता सकते कि पानी ठंडा है अथवा गरम?
हर एक जुबान पर रहने वाले इस गीत को सुनाने का आभार ।
ReplyDeleteलोग कहते हैं , द्विराष्ट्र का सिद्धांत इकबाल ने दिया । अगर सच है तो कैसे ? -
"पिरोना एक ही तसवीह में इन बिखरे दानों को
गर मुश्किल है तो मुश्किल को आसाँ करके छोड़ूंगा ।"
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ReplyDelete@ हिमांशु ,
ReplyDeleteइक़बाल ने मुसलिम लीग के द्विराष्ट्र के सिद्धान्त का समर्थन किया । मजेदार बात यह है कि धर्म के आधार पर दो मुल्क होने चाहिए यह बात मुसलिम लीग से काफ़ी पहले सावरकर ने कही थी । वही सावरकर जिन्होंने काला पानी से रिहाई के लिए अंग्रेजों से पांच बार लिखित माफ़ी मांगी। फिर १९४२ में ’भारत छोड़ो’ का समर्थन न कर वे उस वक्त इस चक्कर में थे कि ’हिन्दू’ अंग्रेजों से फौजी प्रशिक्षण लें ।
बहुत दिनो बाद फिर यह पूरा तराना पढ़ा । धन्यवाद ।
ReplyDeleteतराना बहुत ही अच्छा है......काफी दिन बाद जैसे हम सबने दोहरा लिया हो.
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