पिछले साल जब रूना लैला के गीत यहाँ लगाये थे , अज़दक ने सराहा था । सभी रसों को ग्रहण करने वाला - इसके लिए हमारे हिन्दी के गुरुजी ने एक नाम बताया था - आश्रय । तो अपने इस आशिक-मिजाज आश्रय मित्र के लिए यह गीत-
तुम्हे हो न हो मुझको तो इतना यक़ीं है
मुझे प्यार तुमसे नहीं है , नहीं है ।
मुझे प्यार तुमसे नहीं है ,नहीं है
मगर मैंने ये राज़ अब तक न जाना
के क्यों प्यारी लगती हैं बातें तुम्हारी,
मैं क्यों तुमसे मिलने का ढूँढू बहाना
कभी मैंने चाहा तुम्हें छू के देखूँ,
कभी मैंने चाहा तुम्हें पास लाना
मगर फ़िर भी इस बात का तो यकीं है...
फ़िर भी जो तुम दूर रहते हो मुझसे,
तो रहते हैं दिल पे उदासी के साये ।
कोई ख़्वाब ऊँचे मकानों से झाँके ,
कोई ख़्वाब बैठा रहे सर झुकाये
कभी दिल की राहों में फैले अँधेरा
कभी दूर तक रोशनी मुसकुराये ।
मग़र फ़िर भी इस बात का तो यक़ीं है......
- गुलज़ार नहीं नक्श लायलपुरी (विनयजी के सुधारने पर)
[ प्लेयर पर कर्सर को निचले भाग में ले जायेंगे तो नियन्त्रण के औजार दिखाई देंगे। फिर से सुनने के लिए गीत समाप्त होने पर कर्सर निचले भाग में ले जाना होता है और खटका मारना होता है । फिर से सुनने , एम्बेड कोड और डाउनलोड के प्रावधान परदे पर प्रकट हो जाते हैं । डिवशेयर की खूबी है कि दूसरी बार सुनने पर बिलकुल रुकावट नहीं होती । ]
बेहतरीन गाना. पर गुलज़ार नहीं, नक्श लायलपुरी का लिखा. यह ग़लती लोगों से अक्सर होती है.
ReplyDeleteबहुत सुंदर।
ReplyDeleteरक्षाबंधन पर हार्दिक शुभकामनाएँ!
विश्व-भ्रातृत्व विजयी हो!
ओह, कैसी तो लजीली-चमकीली पंक्तियां हैं..
ReplyDeleteक्यों प्यारी लगती हैं बातें तुम्हारी,
मैं क्यों तुमसे मिलने का ढूँढू बहाना
कभी मैंने चाहा तुम्हें छू के देखूँ,
कभी मैंने चाहा तुम्हें पास लाना
कोई ख़्वाब ऊँचे मकानों से झाँके ,
कोई ख़्वाब बैठा रहे सर झुकाये
कभी दिल की राहों में फैले अँधेरा
कभी दूर तक रोशनी मुसकुराये।
ओह, नशीले नक्शलायलजी, ओहोहो रूना, देखा है तिरी आंखों में बार-बार, केत्ता तो प्यार, बेसुमार..!
ख़ूबसूरत।
ReplyDelete