१९५५ में बनी हाउस नम्बर ४४ । साहिर लुधायनवी की सुन्दर - सहज शब्द रचना । कल्पना कार्तिक पर फिल्माया गया ।
फैली हुई हैं सपनों की बाहें , आ जा चल दें कहीं दूर
वहीं मेरी मंजिल , वहीं तेरी राहें , आ जा चल दें कहीं दूर ।
ऊँची घटा के साये तले छिप जाँए,
धुँधली फ़िज़ा में ,कुछ खोयें ,कुछ पायें ।
साँसों की लय पर , कोई ऐसी धुन गायें,
दे दे जो दिल को दिल की पनाहें ॥ आ जा चल दें...
झूला ढलकता ,घिर घिर हम झूमें,
अम्बर तो क्या है , तारों के भी लब चूमें ।
मस्ती में झूलें और सभी गम भूलें ,
पीछे न देखें मुड़ के निगाहें ॥ आ जा चल दें
साहिर लुधियानवी
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बहुत बढिया गीत है !!
ReplyDeleteAn All Time Favourite Sir... Thanks for making this evening romantic.
ReplyDeleteShaandaar prastuti.
ReplyDelete-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
इस गीत में --ऊँची घटा के साये तले --में सुनने में 'ऊँची' नहीं सुनायी देता..उधे//उदी>सुनता है ...यह क्या शब्द है?क्या आप बता सकते हैं?
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