मुझसे पहली सी मोहब्बत मेरी महबूब ना मांग
मैंने समझा था कि तू है तो दरख़्शा है हयात
तेरा ग़म है तो ग़मे-दहर का झ़गडा़ क्या है
तेरी सूरत से है आलम में बहारों को सबात
तेरी आखों के सिवा दुनिया में रक्खा क्या है
तू जो मिल जाये तो तकदीर निगूं हो जाए
यूं न था, मैंने फ़कत चाहा था यूं हो जाए
और भी दुख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा
राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा
अनगिनत सदियों के तारीक बहीमाना तिलिस्म
रेशमों- अतलसो- कमख्वाब में बुनवाये हुए
जा-ब-जा बिकते हुए कूचा-ओ-बाज़ार में जिस्म
खाक में लिथडे़ हुए, ख़ून में नहलाए हुए
जिस्म निकले हुए अमराज़ के तन्नूरों से
पीप बहती हुई गलते हुए नासूरों से
लौट जाती है उधर को भी नज़र क्या कीजे
अब भी दिलकश है तेरा हुस्न मगर क्या कीजे
और भी दुख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा
राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा
मुझसे पहली सी मोहब्बत मेरे महबूब ना मांग !
- फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
गायिका - नूरजहाँ
मैंने समझा था कि तू है तो दरख़्शा है हयात
ReplyDeleteतेरा ग़म है तो ग़मे-दहर का झ़गडा़ क्या है
तेरी सूरत से है आलम में बहारों को सबात
तेरी आखों के सिवा दुनिया में रक्खा क्या है
dil ko chu gaya hai...
bahut achcha likha hai
आह ! ऐसी नज़्म .... फिर नहीं लिखी गई.
ReplyDeleteनज़्म ही इतनी जानदार है कि बस और ऊपर से नूरजहाँ की आवाज़ की कशिश। काश नूरजहाँ ने पूरी नज़्म गाई होती।
ReplyDeleteगजब!!! यह आई न डूब कर सुनने के लिए. अलग से नहीं थी, तो मानसून वैडिंग पिक्चर में देखनी पड़ती थी.. :)
ReplyDeleteबहुत आभार!!!!!
जब फैज साहब ने नूरजहाँ की आवाज में इस नज्म को सुना तो इतने प्रभावित हुए कि उसके बाद सबसे यही कहा कि आज से ये नज्म नूरजहाँ की हुई
ReplyDeleteइस नज़्म के साथ फैज़ की कई अन्य मशहूर नज़्मों को यहाँ चढ़ाया था।
http://ek-shaam-mere-naam.blogspot.com/2007/03/2_4060.html
वाह फैज़ साहब वाह
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