Monday, August 25, 2008

विडियो पहेली परिणाम के बहाने 'बिन्दी'- चर्चा

२३ अगस्त को मैंने एक विडियो पहेली इसी ब्लॉग पर पूछी थी । पाँच मित्रों ने भाग लिया , जिनके उत्तर उसी पोस्ट की टिप्पणी के रूप में आज प्रकाशित कर दिए गए हैं । पाँचों मित्रों का मैं आभारी हूँ ।
यह गीत पहली बार सुना तब मुझे किसी भी भारतीय गीत से जुदा नहीं लगा । गीत मुझे काफ़ी मधुर लगा था और नायक-नायिका भी खुशनुमा लगे । मुझे तलत महमूद साहब की थोड़ी थोड़ी याद आई । फिर भाई साहब से चर्चा हुई तो उन्होंने बताया कि तलत साहब ने अभिनय भी किया है । इस कड़ी पर जाइएगा तो आपको तलत साहब की खुशनुमा तसवीरें मिलेंगी।
'हिन्दी फिल्मों को घोल कर पीए हुए' दिलीप कवठेकर साहब ने सब से विस्तृत उत्तर दिया । यह भारतीय नहीं है इस बात पर वे इन कारणों से आए :
"य़ह किसी भी हिंदुस्तानी फ़िल्म का गाना नही हो सकता. परिवेश, चेहरों के सांचे, माथे पर बिंदिया लिये एक भी महिला नही, कोई भी पहचान की सूरत नही, एक्स्ट्रा में भी नही."

उनके बताये कारण में दो बातें खटकी । 'चेहरों के सांचे' और 'माथे पर बिन्दिया लिये एक भी महिला' का न होना ! भारत , पाकिस्तान और बांग्लादेश के चेहरों के साँचों में अन्तर ! दिलीप भाई कभी स्पष्ट करेंगे । बिन्दिया वाली बात पर मेरी पत्नी डॉ.स्वाति ने कहा कि हिन्दू महिलाएं बिन्दी न लगाना अशुभ मानती हैं और इसीलिए मुस्लिम महिलाएं लगाना । इससे लगा कि क्या यह कोई धार्मिक फर्क है ? खोज शुरु की तो पता चला कि खोजा मुस्लिम महिलाएं ,बांग्लादेशी मुस्लिम महिलाएं तथा कर्नाटक की मुस्लिम महिलाएं तो व्यापक तौर पर बिन्दी लगाती हैं । फिर पाकिस्तानी पंजाबी गीत मिले बिन्दिया वाले और बांग्लादेशी भी । पाकिस्तान में एक अभिनेत्री का नाम भी बिन्दिया है । फिल्मी दाएरे से ऊपर उठने पर रूहानी और आध्यात्मिक पुट लिए - 'छाप तिलक सब छीनी रे,मों से नैना मिलाइके' तो भारत-पाक दोनों देशों में गाया जाता है ।
अब इससे उलट बात की पुष्टि करने की सोची - क्या भारतीय फिल्मों की नायिकाएं अनिवार्य तौर पर बिन्दी लगाती हैं? दो पसन्दीदा नए गीतों को सुना/देखा । दोनों की हिरोइनें बिना बिन्दी लगाए थीं । बिन्दी का मामला सांस्कृतिक प्रतीत हुआ , धार्मिक से ज्यादा ।
दो बांग्लादेशी गीत (सबीना यास्मीन और सलमा अख़्तर के विडियो );

पाकिस्तानी पंजाबी गीत :

और भारतीय फिल्म 'कभी अल्विदा न कहना' तथा 'लाइफ़ इन ए मेट्रो ' के गीत :


4 comments:

  1. युनुस खान , नचिकेता और मनीष के उत्तर सही हैं।
    - अफ़लातून

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  2. आप की आज की ये पोस्ट शानदार रही। अच्छा विश्लेषण किया आपने बिंदियों के बारे में! सही है इनका लगाना ना लगाना इलाके की सांस्कृतिक विरासत का परिणाम है।

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  3. बिहार में भी विवाहित मुस्लिम महिलाएं bindi और सिन्दूर का खूब इस्तेमाल करती करती हैं.
    आपके सभी ब्लॉग गहन-चिंतन, अध्ययन और ठोस अनुभव की बानगी पेश करते हैं.

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  4. क्षमा करें, बाहर दरबदर था इसलिये आपके पोस्ट को देख नही पाया, और कुछ कह नही पाया.

    आपने बेहतरीन तरीके से बिन्दिया वाली बात कही. अक्षरशः सत्य.Truth and nothing but Truth.

    मेरा नम्र निवेदन यह है, कि यहां पहेली के लिये जो साजोसामां उपलब्ध था, विडीयो क्लिप के शक्ल में , उससे पता लगाने की प्रामाणिक कोशिश में लगा था.

    Hindi film or Film as a whole is a depiction of make believe world, created and placed mostly as larger than life image of characters, situations and for that matter cultural backdrop.
    A radical contrast and paradox in reel life & real life.

    अतः ,यदि यथार्थवादी फ़िल्मों को छोड दे, तो अमूमन सभी फ़िल्मों में आप को टाईप्ड चरित्र मिलेंगे, पचास साठ के दशक की फ़िल्मों में अधिक.

    हर मुसलमान चरित्र के गले में तावीज़, ज्यादहतर एक टोपी, तेहमद (चचा का चरित्रचित्रण)आदि. हम उन दिनों भी यह कहां पाते थे.

    So, instead of what should have been or should be, it was an honest attempt to trace out some typical traits out of available factual data as what IT WAS.सो जो पाया उस पर तर्क शक्ति का उपयोग किया.


    हिन्दी फ़िल्मों के अधिकतर नायक और नायिका का परिचय फ़िल्मों को देखकर था ही, यहां अपरिचित चेहरे थे.प्रस्तुत फ़िल्म में जो पार्टी क्राउड था, उनके चेहरों में वेराईटी नही थी, जैसा की हिन्दी फ़िल्मों की पार्टी में अक्सर दिख जाती है. कहीं एक सरदारजी, कही दक्षिण भारतीय चेहरा.यहां तक की मुस्लिम परिवेश की हिन्दुस्थानी फ़िल्म में भी एक ना एक बिन्दी वाला चेहरा रहता ही था.

    सो , यही पाया की हो ना हो, यह पाकिस्तानी फ़िल्म होने की संभावना अधिक है.

    मुझे एक बात यहां याद आती है, जिससे मेरा उपरोक्त धृष्टतापूर्ण निवेदन माफ़ करने लायक हो जायेगा.

    प्रसिद्ध रंगकर्मी निर्देशिका विजया मेहता से जब अल्प समय के लिये वर्क शॊप में सीख रहा था तो एक ऐतिहासिक मराठी Costume drama ' इथे ओशळला मृत्यु’ के लिये औरंगज़ेब के चरित्र का गेट अप / मेक अप किया जा रहा था . तो उस पात्र के कपाल पर काले दाग दिखाये गये. यह आप हम सभी जानते ही हैं की जो पांचो वक्त की नमाज़ पढता है, उसे सज़दे में अपने कपाल को ज़मीन पर लगाना लाज़मी होता है, और जो जितना नियमीत नमाज़ी होगा उसके माथे पर यह दाग ज़रूर दिखेगा. पर हमारे ज्यादहतर हिन्दी फ़िल्मों के वे मुसलमान चरित्र ,जो काफ़ी धार्मिक बताये जाते है, उनका माथा कोरा रहता है.

    भारत देश के नागरीकों के चेहरे भी ज्यादा विविधता लिये होंगे, बनिस्बत उनके पाकिस्तानी भाईबंदोंके .

    मेरा यह नम्र प्रयास इसलिये नही था की अपनी बात का बचाव करूं, क्योंकि Life is certainly larger than logic. मगर आपने अपने पोस्ट में बडी उदारता से स्पष्ट करने के लिये लिखा भी है.

    हिंदी और अंग्रेज़ी में लिखने के लिये भी क्षमा.

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