Thursday, July 31, 2008

अशोक पाण्डे को समर्पित जोन बायेज़ पर पोस्ट

[ प्रिय चिट्ठेकार अशोक पाण्डे को जोन बायेज़ पर केन्द्रित यह संस्मरणात्मक पोस्ट समर्पित करते हुए मुझे खुशी हो रही है। नारायण देसाई १९६९ में विश्व भ्रमण पर निकले थे तथा उनका यात्रा विवरण 'यत्र विश्वं भवत्येकनीडम् ' नाम से छपा था । पुस्तक अप्राप्य है । लेखक के पुस्तकालय से जुगाड़ हुआ है। ]
.... शाम को कार्मेल में जोन बायेज़ के माता - पिता के साथ ठहरा । उनके पिता तो इन्फ़्लुएन्जा के कारण बिछौने में थे। माता ने आते ही पूछा : "क्यों खाना-पीना किया या बाकी है ? मैं जानती ही थी कि तुम वेजिटेरियन होगे , इसलिए तुम्हारे लिए वेजिटेबल सूप तैयार रखा है ।"
कौन कहता है मेरी माँ नहीं रही ? वह तो मुझे दर्शन देती है उत्तरी अमरीका के पश्चिमी कोने के इस छोटे से कार्मेल गांव में भी ।
जोन बायेज़ के पिता बड़े वैज्ञानिक हैं । उनकी बीमारी के कारण उनसे अधिक बातें करने का मौका नहीं मिला । सारा घर ग्रामोफोन रेकार्ड तथा किताबों से भरा हुआ । सिर्फ मिस्टर बायेज़ का दफ़्तर बहुत व्यवस्थित था। श्री बायेज़ से एक किस्सा सुना। युनेस्को के काम के सिलसिले में वे रूस गये हुए थे किसी प्रतिनिधि-मंडल के साथ । उनके नाम में बायेज़ देखकर लोग पूछने लगे कि क्या आप जोन बायेज़ के कोई रिश्तेदार तो नहीं हैं ? पुत्री के नाम से अपना परिचय होते हुए देखकर इस विख्यात वैज्ञानिक ने बड़ा सन्तोष अनुभव किया होगा।
पुत्री से भेंट तो दूसरे दिन होने वाली थी । इस दिन तो उसकी माँ से ही परिचय करना था । माँ ने और कुछ नहीं किया होता और सिर्फ जोन को जन्म दिया होता तो भी वह धन्य हो जाती। लेकिन इस माँ ने तो जोन को संस्कार भी दिए थे । अपनी जीवन-कथा 'डे-ब्रेक' में जोन ने इसे बखूबी लिखा है । कैसे बचपन के जोन के भय के संस्कार श्रीमती बायेज़ ने प्रेम और धीरज दे-देकर मिटाये , कैसे एक साल तक छुट्टी पाने पर उस समय में जोन की सारी अभिव्यक्ति को प्रकाश मिला , कैसे उन्होंने जोन के साथ दो बार जेल में जाकर अन्य स्त्रियों का कारावास-भय मिटाया इत्यादि । रात को मुझे उसी खटिये पर सुलाया गया , जहाँ जोन आने पर सोती है । रातभर श्री बायेज़ पास के कमरे में खाँसते रहे । और जब तक जागा मैं इस जोड़े के बारे में सोचता रहा , जिसने अमरीका की सबसे प्रसिद्ध गायिका- या सबसे प्रसिद्ध शान्तिवादी ? - जोन बायेज़ को जन्म दिया था ।
दूसरे दिन जब पालो आल्टो में कई और लोगों के साथ जोन बायेज़ का भी परिचय कराया गया , तब कुछ क्षण तो मैं उसे पहचान ही न पाया । उसके दो कारण थे । एक तो , जोन ने अपने लम्बे बाल कटवा लिये थे । और दूसरा , परिचय करानेवाले ने मिसेज बायेज़ हेरिस कहकर उसका परिचय दिया था। चित्र में देखी हुई जोन लंबे बालवाली थी और मैं तो यह भूल ही गया था कि डेविड हेरिस नामक एक शांतिवादी से उसकी शादी हो चुकी थी।
लेकिन जब सहज ही उसके इर्द-गिर्द प्रशंसकों की भीड़ होने लग गयी , तब मैं अचानक समझ गया कि यही जोन बायेज़ थी ।
आमतौर पर अमरीका में सभा का आरंभ गीतों से नहीं होता । लेकिन मेरी प्रार्थना को उसने बिना किसी आग्रह के स्वीकार कर लिया। क्या अदभुत् कण्ठ है ! जितना मधुर उतना ही बुलंद। जितना दर्द उतना ही कंप । सुर किसी निर्झर की सहजता से बहते थे , किन्तु साथ ही यह भी पता चलता था कि इसके पीछे बरसों की साधना थी ।



[ जारी ]

Monday, July 28, 2008

'साज़ और आवाज़' की याद में

विविध भारती का एक कार्यक्रम हमें बहुत पसन्द था - 'साज़ और आवाज़'। एक गीत और उसके बाद किसी वाद्य यन्त्र पर उसी गीत की धुन पेश की जाती थी । यह कार्यक्रम शाम को प्रसारित होता था । रेडियो सिलोन पर भी ऐसा ही एक कार्यक्रम प्रसारित होता था । वाद्य यन्त्र पर धुन पेश करने वाले कलाकारों के भी हम कायल हुआ करते थे । पियानो एकॉर्डियन पर एनॉक डैनियल , मदन कुमार , मिलन गुप्ता मॉउथ ऑर्गन पर अथवा गिटार पर गांगुली धुनें पेश करते थे । शौकिया वाद्य यन्त्र बजाने वाले तो इन कार्यक्रमों को बिना नागा सुनते । लम्बे समय से यह कार्यक्रम बन्द कर दिए गए हैं । विविध भारती धुनों का इस्तेमाल जरूर करती है ,बिना कलाकारों का नाम उद्घोषित किए , अन्य कार्यक्रमों के बीच अन्तरालों में । जैसे एफ़एम के नए चैनल गीतकारों का नाम हजम कर जा रहे हैं , विविध भारती इन धुनों को बजाने वालों को श्रेय देना उचित नहीं समझ रही है ।
बहरहाल आगाज़ में आज हम साज और आवाज की स्मृति में काश्मीर की कली फिल्म का लोकप्रिय गीत दीवाना हुआ बादल पेश कर रहे हैं । मूल गीत के साथ कोलकाता के सुमन्त द्वारा माउथ ऑर्गन पर बजाई गई इस धुन को भी सुनना न भूलें। सुमन्त ३१ वर्ष के हैं और पिछले १७ वर्षों से शौकिया माउथ ऑर्गन बजा रहे हैं। पेशे से वे वेब डिज़ाइनर हैं ।



Sunday, July 20, 2008

कैसे उनको पाऊँ ,आली/ महादेवी वर्मा /आशा भोंसले/जयदेव

पिछली बार कबीर की बेटी कमाली का लिखा 'श्याम निकस गये, मैं न लड़ी थी' गीत प्रस्तुत किया था जिसे मेरे प्रिय रसिकों ने पसन्द किया। एचएमवी ने आशा भोंसले के गैर फिल्मी गीतों और गज़लों का एक एलपी जारी किया गया था,उक्त गीत उसमें था। उस तवे पर जयशंकर प्रसाद , महादेवी और निराला के गीत भी थे । सभी गीतों की धुन प्रख्यात संगीतकार जयदेव की बनायी है ।
यहाँ प्रस्तुत है उस संग्रह से महादेवी वर्मा का गीत - कैसे उनकों पाऊँ , आली

Friday, July 18, 2008

ना मैं लड़ी थी

कबीर की बेटी कमाली की रचना को आशा भोंसले स्वर में सुनें :



Tuesday, July 15, 2008

जलते हैं जिसके लिए तेरी आंखों के दीए

मेरे जनम के साल में बनी फिल्म सुजाता का यह गीत मेरे पिताजी(अभी उमर ८४) को भी पसन्द है। तरुण शान्ति सेना के शिबिरों में अच्छे गले वाले शिबिरार्थियों से वे इस गीत को सुनने की फ़रमाइश जरूर करते । मैं दरजा सात - आठ में पहुँचा तो गीत की रूमानियत को जज़्ब करने लगा । आज कल विविध भारती वाले इसे कम सुना रहे हैं । बोल इस प्रकार हैं :
जलते हैं जिसके लिए , तेरी आंखों के दीए,
ढूंढ़ लाया हूं वही गीत मैं तेरे लिए ।

दिल में रख लेना इसे हाथों से ये छूटे न कहीं ,
गीत नाज़ुक हैं मेरे शीशे से भी टूटे न कहीं ,
गुनगुनाऊँगा वही गीत मैं तेरे लिए ॥

जब तलक न ये तेरे रस के भरे होटों से मिलें,
यूँ ही आवारा फिरें , गायें तेरी ज़ुल्फ़ों के तले ,
गाए जाऊँगा वही गीत मैं तेरे लिए ॥

Jalte Hain Jiske L...

Monday, July 7, 2008

चाँद अकेला जाये सखी री, येसुदास ,आलाप

चाँद अकेला जाये सखी री,
काहे अकेला जाई सखी री ।
मन मोरा घबडाये री,सखी री,सखी री,ओसखी री ।
वो बैरागी वो मनभावन,
कब आयेगा मोरे आँगन,
इतना तो बतलाये री,
सखी री , सखी री ,ओ सखी री । चाँद अकेला..
अंग अंग में होली दहके,
मन में बेला चमेली महके ,
ये ऋत क्या कहलाये री,
भाभी री , भाभी री, ओ भाभी री । चाँद अकेला...

Saturday, July 5, 2008

मुजफ़्फ़र अली की 'गमन' के गीत

१९७८ में बनी ग़मन मुजफ़्फ़र अली द्वारा निर्देशित पहली फिल्म थी । इस फिल्म में संगीत के लिए जयदेव को १९७९ में सर्वोत्तम संगीत का पुरस्कार मिला था । सुरेश वाडकर , छाया गांगुली और हीरा देवी मिश्रा के गाये गीत दिल में जगह बना लेते हैं । 'सीने में जलन' शहरयार का लिखा है । 'नौशा अमीरों का' शादी के अवसर पर गाया जाने वाला एक पारम्परिक गीत है ।





Friday, July 4, 2008

पलुस्कर का मधुर गायन

पंडित दत्तात्रेय विष्णु पलुस्कर सिर्फ़ दस साल के थे जब उनके पिता विष्णु दिगम्बर पलुस्कर नहीं रहे। पं. विनायकराव पटवर्धन तथा पं नारायणराव व्यास से उन्होंने गायन सीखा। १४ वर्ष की अवस्था में हरवल्लभ संगीत सम्मेलन (पंजाब) में प्रथम प्रस्तुति का मौका मिला। उन्होंने ग्वालियर घराने को अपनाया लेकिन अन्य घरानों की विशिष्टताओं को भी ग्रहण किया। उनकी आवाज अत्यन्त मधुर और कर्णप्रिय थी।
उनके भजन तथा उस्ताद अमीर खान साहब के साथ बैजू बावरा फिल्म में जुगलबन्दी भी अत्यन्त प्रसिद्ध हैं।
३४ वर्ष की अल्पायु में मस्तिष्क ज्वर से उनकी मृत्यु हुई।
'आगाज़' के सुधी श्रोता इस अमर गायक के गायन का रसास्वादन करेंगे ।