पुरुषों द्वारा बच्चों के लिए गाए गए गीत अत्यल्प हैं ।उनमें से एक गीत पेश है, किशोर कुमार का गाया,मुसाफ़िर फिल्म का (१९५७)
मुन्ना बड़ा प्यारा, अम्मी का दुलारा
कोई कहे चाँद, कोई आँख का तारा
हँसे तो भला लगे, रोये तो भला लगे
अम्मी को उसके बिना कुछ भी अच्छा ना लगे
जियो मेरे लाल, जियो मेरे लाल
तुमको लगे मेरी उमर जियो मेरे लाल
मुन्ना बड़ा प्यारा ...
इक दिन वो माँ से बोला क्यूँ फूँकती है चूल्हा
क्यूँ ना रोटियों का पेड़ हम लगालें
आम तोड़ें रोटी तोड़ें रोटी\-आम खालें
काहे करे रोज़\-रोज़ तू ये झमेला
अम्मी को आई हंसी, हँसके वो कहने लगी
लाल मेहनत के बिना रोटी किस घर में पकी
जियो मेरे लाल, जियो मेरे लाल
ओ जियो जियो जियो जियो जियो मेरे लाल
मुन्ना बड़ा प्यारा ...
एक दिन वो छुपा मुन्ना, ढूँढे ना मिला मुन्ना
बिस्तर के नीचे, कुर्सियों के पीछे
देखा कोना कोना, सब थे साँस खींचे
कहाँ गया कैसे गया सब थे परेशां
सारा जग ढूँढ सजे, कहीं मुन्ना ना मिला
मिला तो प्यार भरी माँ की आँखों में मिला
जियो मेरे लाल, जियो मेरे लाल
ओ तुमको लगे मेरी उमर जियो मेरे लाल
मुन्ना बड़ा प्यारा ...
जब साँझ मुस्कुराये, पश्चिम में रंग उड़ाये
मुन्ने को लेके अम्मी दरवाज़े पे आ जाये
आते होंगे बाबा मुन्ने की मिठाई
लाते होंगे बाबा ...
छात्र युवा संघर्ष वाहिनी , नौजवानों की जिस जमात से आपात-काल के खत्म होते होते जुड़ा उसने 'सांस्कृतिक क्रान्ति' का महत्व समझा । भवानी बाबू ने इस जमात को कहा ' सुरा-बेसुरा ' जैसा भी हो गाओ। सो , सुरे-बेसुरे गीतों का यह चिट्ठा ।
Saturday, May 24, 2008
Thursday, May 22, 2008
उडुपि हिन्दी पत्रिका और 'ऐ मेरे प्यारे वतन'
रमेश नायक कर्नाटक के उडुपि जिले के नवोदय विद्यालय में हिन्दी शिक्षक हैं और उनके छात्र गांधीजी की प्रेरणा से बनी दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा , मद्रास की धारवाड़ इकाई की परीक्षा भी देते हैं । गांधीजी के कनिष्ठ पुत्र देवदास बरसों चेन्नै में इस कार्य से जुड़े रहे ।
बहरहाल , रमेश नायक की चर्चा हम उनके हिन्दी चिट्ठे के कारण कर रहे हैं । उडुपि हिन्दी पत्रिका अप्रैल २००७ से एक चिट्ठे के रूप में शुरु हुई है । यहाँ उनके चिट्ठे पर दी गयी रवीन्द्रनाथ ठाकुर की प्रसिद्ध कहानी 'काबुलीवाला' की कड़ी दी गयी है । पाठकों से गुजारिश है कि उनके चिट्ठे पर टीप कर उन्हें प्रोत्साहित करें ।
१९६१ में इस कहानी पर आधारित हिन्दी फिल्म बनी जिसमें बलराज साहनी , उषा किरन और सोनी मुख्य पात्र थे । संगीत सलिल चौधरी का और गीत गुलज़ार के थे । फिल्म में दो गीत मेरे अत्यन्त प्रिय हैं : बंगाल के भटियाली धुन पर - 'गंगा आए कहाँ से' । साथी अशोक पाण्डे ने इसे यहाँ प्रस्तुत किया था । स्वर हेमन्त कुमार का है ।
दूसरा गीत मन्ना डे ने गाया है । दोनों गीतों के बोल प्रस्तुत हैं :
१
ऐ मेरे प्यारे वतन, ऐ मेरे बिछड़े चमनतुझ पे दिल क़ुरबान
तू ही मेरी आरज़ू, तू ही मेरी आबरूतू ही मेरी जान
(तेरे दामन से जो आए उन हवाओं को सलाम
चूम लूँ मैं उस ज़ुबाँ को जिसपे आए तेरा नाम ) - २
सबसे प्यारी सुबह तेरीसबसे रंगीं तेरी शामतुझ पे दिल क़ुरबान ...
(माँ का दिल बनके कभी सीने से लग जाता है तू
और कभी नन्हीं सी बेटी बन के याद आता है तू ) - २
जितना याद आता है मुझकोउतना तड़पाता है तू तुझ पे दिल क़ुरबान ...
(छोड़ कर तेरी ज़मीं को दूर आ पहुंचे हैं हमफिर भी है ये ही तमन्ना तेरे ज़र्रों की क़सम ) - २
हम जहाँ पैदा हुएउस जगह पे ही निकले दम
तुझ पे दिल क़ुरबान ...
२
गंगा आये कहाँ से, गंगा जाये कहाँ रेआये कहाँ से,
जाये कहाँ रे लहराये पानी में जैसे धूप-छाँव रेगंगा आये कहाँ से, गंगा जाये कहाँ रे
लहराये पानी में जैसे धूप-छाँव रे
रात कारी दिन उजियारा मिल गये दोनों साये
साँझ ने देखो रंग रुप्प के कैसे भेद मिटाये
लहराये पानी में जैसे धूप-छँव रे ...
काँच कोई माटी कोई रंग-बिरंगे प्याले
प्यास लगे तो एक बराबर जिस में पानी डाले
लहराये पानी में जैसे धूप-छाँव रे ...
नाम कोई बोली कोई लाखों रूप और चेहरे
खोल के देखो प्यार की आँखें सब तेरे सब मेरे
लहराये पानी में जैसे धूप-छाँव रे ...
बहरहाल , रमेश नायक की चर्चा हम उनके हिन्दी चिट्ठे के कारण कर रहे हैं । उडुपि हिन्दी पत्रिका अप्रैल २००७ से एक चिट्ठे के रूप में शुरु हुई है । यहाँ उनके चिट्ठे पर दी गयी रवीन्द्रनाथ ठाकुर की प्रसिद्ध कहानी 'काबुलीवाला' की कड़ी दी गयी है । पाठकों से गुजारिश है कि उनके चिट्ठे पर टीप कर उन्हें प्रोत्साहित करें ।
१९६१ में इस कहानी पर आधारित हिन्दी फिल्म बनी जिसमें बलराज साहनी , उषा किरन और सोनी मुख्य पात्र थे । संगीत सलिल चौधरी का और गीत गुलज़ार के थे । फिल्म में दो गीत मेरे अत्यन्त प्रिय हैं : बंगाल के भटियाली धुन पर - 'गंगा आए कहाँ से' । साथी अशोक पाण्डे ने इसे यहाँ प्रस्तुत किया था । स्वर हेमन्त कुमार का है ।
दूसरा गीत मन्ना डे ने गाया है । दोनों गीतों के बोल प्रस्तुत हैं :
१
ऐ मेरे प्यारे वतन, ऐ मेरे बिछड़े चमनतुझ पे दिल क़ुरबान
तू ही मेरी आरज़ू, तू ही मेरी आबरूतू ही मेरी जान
(तेरे दामन से जो आए उन हवाओं को सलाम
चूम लूँ मैं उस ज़ुबाँ को जिसपे आए तेरा नाम ) - २
सबसे प्यारी सुबह तेरीसबसे रंगीं तेरी शामतुझ पे दिल क़ुरबान ...
(माँ का दिल बनके कभी सीने से लग जाता है तू
और कभी नन्हीं सी बेटी बन के याद आता है तू ) - २
जितना याद आता है मुझकोउतना तड़पाता है तू तुझ पे दिल क़ुरबान ...
(छोड़ कर तेरी ज़मीं को दूर आ पहुंचे हैं हमफिर भी है ये ही तमन्ना तेरे ज़र्रों की क़सम ) - २
हम जहाँ पैदा हुएउस जगह पे ही निकले दम
तुझ पे दिल क़ुरबान ...
२
गंगा आये कहाँ से, गंगा जाये कहाँ रेआये कहाँ से,
जाये कहाँ रे लहराये पानी में जैसे धूप-छाँव रेगंगा आये कहाँ से, गंगा जाये कहाँ रे
लहराये पानी में जैसे धूप-छाँव रे
रात कारी दिन उजियारा मिल गये दोनों साये
साँझ ने देखो रंग रुप्प के कैसे भेद मिटाये
लहराये पानी में जैसे धूप-छँव रे ...
काँच कोई माटी कोई रंग-बिरंगे प्याले
प्यास लगे तो एक बराबर जिस में पानी डाले
लहराये पानी में जैसे धूप-छाँव रे ...
नाम कोई बोली कोई लाखों रूप और चेहरे
खोल के देखो प्यार की आँखें सब तेरे सब मेरे
लहराये पानी में जैसे धूप-छाँव रे ...
Wednesday, May 21, 2008
भाई का संगीत , बहन का मीठा स्वर
संगीतकार कानू रॉय प्रसिद्ध गायिका गीता दत्त के भाई थे । हांलाकि उन्होंने फिल्मों में अभिनय( किस्मत . महल , जागृति , मुनीमजी , हम सब चोर हैं , तुमसा नहीं देखा , बन्दिनी ) भी किया लेकिन संगीतकार के रूप में उन्हें शायद ज्यादा याद किया जाता रहेगा ( उसकी कहानी , अनुभव , अविष्कार , गृहप्रवेश , स्पर्श )।
आगाज़ के रसिक श्रोताओं के लिए फिल्म अनुभव का यह गीत पेश है :
मेरी जाँ , मुझे जाँ न कहो मेरी जाँ
मेरी जाँ , मेरी जाँ,
जाँ न कहो अनजान मुझे
जान कहाँ रहती है सदा
अनजाने क्या जाने
जान के जाए कौन भला ॥
सूखे सावन बरस गये,
कितनी बार इन आँखों से।
दो बूँदें न बरसे,
इन भीगी पलकों से ॥
होंठ झुके जब होंठों पर
साँस उलझी हो साँसों में ।
दो जुड़वा होंठों की
बात कहो आँखों से ॥
( कृपया पहली बार यू ट्यूब को बफ़रिंग करने दें ,दूसरी बार में बिना व्यवधान सुनें,देखें । )
आगाज़ के रसिक श्रोताओं के लिए फिल्म अनुभव का यह गीत पेश है :
मेरी जाँ , मुझे जाँ न कहो मेरी जाँ
मेरी जाँ , मेरी जाँ,
जाँ न कहो अनजान मुझे
जान कहाँ रहती है सदा
अनजाने क्या जाने
जान के जाए कौन भला ॥
सूखे सावन बरस गये,
कितनी बार इन आँखों से।
दो बूँदें न बरसे,
इन भीगी पलकों से ॥
होंठ झुके जब होंठों पर
साँस उलझी हो साँसों में ।
दो जुड़वा होंठों की
बात कहो आँखों से ॥
( कृपया पहली बार यू ट्यूब को बफ़रिंग करने दें ,दूसरी बार में बिना व्यवधान सुनें,देखें । )
Tuesday, May 20, 2008
फ़िराक की गज़ल , चित्रा सिंह की आवाज़
प्रसिद्ध शायर फ़िराक गोरखपुरी की गज़ल । प्रसिद्ध गज़ल गायिका चित्रा सिंह के स्वर में ।
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Monday, May 19, 2008
एक मधुर दोगाना
१९६५ में किरन प्रोडक्शन द्वारा बनायी गयी फिल्म नीला आकाश का संगीत मदन मोहन का था । धर्मेन्द्र और माला सिन्हा अभिनित फिल्म का यह दोगाना अत्यन्त मधुर है । आवाज दी है मोहम्मद रफ़ी और आशा भोंसले ने । गीत रचना राजा मेंहदी अली खाँ की । गीत के बोल :
आप को प्यार छुपाने की बुरी आदत है , आप को प्यार जताने की बुरी आदत है ।
आप ने सीखा है क्या दिल को लगाने के सिवा ?
आप को आता है क्या, नाज़ दिखाने के सिवा ?
और हमें नाज़ उठाने की बुरी आदत है ॥
किसलिए आप ने शर्मा के झुका ली आँखें,
किसलिए आप से घबरा के बचा ली आँखें ?
आप को तीर चलाने की बुरी आदत है ॥
आप को प्यार छुपाने की बुरी आदत है , आप को प्यार जताने की बुरी आदत है ।
आप ने सीखा है क्या दिल को लगाने के सिवा ?
आप को आता है क्या, नाज़ दिखाने के सिवा ?
और हमें नाज़ उठाने की बुरी आदत है ॥
किसलिए आप ने शर्मा के झुका ली आँखें,
किसलिए आप से घबरा के बचा ली आँखें ?
आप को तीर चलाने की बुरी आदत है ॥
Friday, May 16, 2008
'मैं तो हूँ जागी , मेरी सो गयी अँखिया'
जाने कैसे सपनों में खो गयी अखियाँ, मैं तो हूँ जागी मेरी सो गयी अखियाँ
अजब दिवानी भयी, मोसे अनजानी भयी,पल में परायी देखो हो गयी अखियाँ।।
बरसी ये कैसी धारा , काँपे तन मन सारा ।
रंग से अंग भिगो गयी अखियाँ ॥
मन उजियारा छाया , जग उजियारा छाया ।
जगमग दीप सँजो गयी अखियाँ ॥
पडित रविशंकर द्वारा संगीतबद्ध फिल्म अनुराधा का यह गीत लता मंगेशकर का गाया हुआ है ।
अजब दिवानी भयी, मोसे अनजानी भयी,पल में परायी देखो हो गयी अखियाँ।।
बरसी ये कैसी धारा , काँपे तन मन सारा ।
रंग से अंग भिगो गयी अखियाँ ॥
मन उजियारा छाया , जग उजियारा छाया ।
जगमग दीप सँजो गयी अखियाँ ॥
पडित रविशंकर द्वारा संगीतबद्ध फिल्म अनुराधा का यह गीत लता मंगेशकर का गाया हुआ है ।
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Sunday, May 11, 2008
महान देशभक्त और नेता ( ज़फ़र): ले. सुभाषचन्द्र बोस
[ १८५७ में हुई आज़ादी की पहली लड़ाई की १५०वीं वर्षगाँठ इस वर्ष देश भर में मनाई जा रही है ।इस मौके पर भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के नेताजी द्वारा प्रथम संग्राम के देशभक्त नायक की स्मृति में दिए गए इस दुर्लभ भाषण को नेताजी के दिल के करीब की ज़ुबाँ में पेश करते हुए मुझे खुशी हो रही है । " राष्ट्रभाषा के नाते कंग्रेस ने हिन्दी (या हिन्दुस्तानी) को अपनाया , इससे अंग्रेजी का महत्व समाप्त हुआ " - इस उपलब्धि का श्रेय नेताजी महात्मा गाँधी को देते हैं । यह भाषण नेताजी ने सम्राट-कवि बहादुरशाह ज़फ़र की मज़ार पर हुए आज़ाद हिन्द फौज की आनुष्ठनिक कवायद और जलसे में ११ जुलाई , १९४४ को दिया था । नेताजी की 'ब्लड बाथ' नामक पुस्तिका में यह संकलित है । यह पुस्तिका पहले-पहल 'आज़ाद हिन्द सरकार' के 'प्रेस,प्रकाशन तथा प्रचार विभाग' द्वारा बर्मा से प्रकाशित हुई थी तथा नेताजी जन्मशती के मौके पर , १९९६ में, जयश्री प्रकाशन ( २० ए प्रिंस गुलाम मोहम्मद रोड, कोलकाता - ७०००२६) द्वारा पुनर्प्रकाशित की गई है । हिन्दी अनुवाद : अफ़लातून ] संजाल पर प्रथम प्रकाशन : निरंतर
पिछले साल सितम्बर महीने में हमने भारत की आज़ादी की पहली जंग और इंकलाब के रहनुमा सम्राट बहादुरशाह की मज़ार पर आनुष्ठनिक कवायद का आयोजन किया था । पिछले साल हुआ जलसा भारत की आज़ादी के लिए हो रहे संघर्ष के लिहाज से ऐतिहासिक था चूँकि आज़ाद हिन्द फौज की टुकड़ियाँ मौजूद थीं और जलसे में उन्होंने शिरकत भी की थी । मैं उस जलसे को ऐतिहासिक क़रार दे रहा हूँ चूँकि वह पहला मौका था जब हिन्द की नई इन्कलाबी फौज द्वारा भारत की पहली इंकलाबी फौज के सेनापति को श्रद्धांजलि दी गई । पिछले साल की कवायद में हम में से जो लोग भी शरीक थे उन लोगों ने सम्राट बहादुरशाह के काम को आगे बढ़ाने और भारत को ब्रिटिश गुलामी के जुए से निजात दिलाने की क़सम ली थी । मुझे इस बात की खुशी और फक्र है कि उस कसम को आंशिक तौर पर पूरा करने में हमें कामयाबी मिली है । पिछले साल के जलसे में मौजूद ज्यादातर सैनिक इस वक्त अग्रिम मोर्चा संभाले हुए हैं । भारत की सरहद को पार कर आज़ाद हिन्द फौज आज मातृभूमि की मट्टी पर लड़ रही है ।
इस साल के आयोजन के साथ यह असाधारण , शायद दैवी संयोग था कि सम्राट बहादुरशाह की पुण्य तिथि और 'नेताजी सप्ताह' एक साथ पड़े हैं । 'नेताजी सप्ताह' के दौरान समूचे पूर्वी एशिया में रहने वाले भारतीय भारतीयों ने मुकम्मिल आज़ादी हासिल करने तक अपनी लड़ाई जारी रखने का विधिवत संकल्प लिया है । यह दैवी संकेत है कि आज़ादी के जंग के पहले सेनापति की समाधि का स्थल भारत की आज़ादी की आखिरी जंग का मुख्य केन्द्र है । इसी पवित्र अड्डे से हमारी अपनी मातृभूमि की ओर अग्रसर है । आज़ाद हिन्द फौज की आनुष्ठनिक कवायद में इसी स्थान पर पुन: जुट कर हम अपने संकल्प की आंशिक पूर्ति की खुशी महसूस करने के साथ-साथ भारत की भूमि को अनचाहे अंग्रेजों से निजात दिलाने तक अनवरत संघर्ष के लिए कमर-कस कर तैयार हो रहे हैं ।
यहाँ १८५७ के घटनाक्रम पर एक नज़र डालना वाजिब होगा । अंग्रेज इतिहासकारों ने १८५७ की लड़ाई के बारे में यह दुष्प्रचार कर रखा है कि वह अंग्रेज फौज में सेवारत भारतीय सैनिकों का विद्रोह-मात्र था । हकीकत है कि वह एक कौमी इन्कलाब था जिसमें भारतीय सैनिकों के साथ-साथ नागरिकों ने भी शिरकत की थी । इस राष्ट्रव्यापी जंग में कई राजा शरीक हुए जबकि यह दुर्भाग्यपूर्ण रहा कि कई राजा खुद को दरकिनार किए रहे । इस जंग के शुरुआती दौर में कई फतह हुईं , अन्तिम दौर में ही बड़ी ताकत के बल पर हमें पराजित किया गया ।किसी क्रान्ति की तवारीख़ में ऐसा होना बिलकुल असामान्य नहीं है ।दुनिया के इतिहास में यह मुश्किल से मिलेगा जब क्रान्ति पहले संघर्ष में ही कामयाब हो गयी हो । "आज़ादी की लड़ाई एक बार आरम्भ होती है तो पुश्त-दर-पुश्त चलती है " । बवक्तन यदि इंकलाब नाकामयाब भी होता है या दबा दिया जाता है तब भी उसके कुछ सबक हासिल होते हैं । आगे आने वाली पीढ़ियाँ इन सबक को लेकर अपनी लड़ाई ज्यादा असरकारक तरीके से , ज्यादा तैयारी के साथ फिर से खड़ी करती हैं । हम ने १८५७ की नाकामयाबी से सबक लिया है और इस तजुर्बे का इस्तेमाल भारत की आज़ादी की इस आखिरी जंग में किया है ।
यह सोचना भूल होगी कि १८५७ में एक दिन अचानक लोगों ने अंग्रेजों के खिलाफ़ हथियार उठा लिए । कोई भी क्रान्ति जल्दबाजी में या अललटप्पू तरीके से नहीं लायी जाती है । १८५७ के हमारे रहनुमाओं ने अपने तईं पूरी तैयारी की थी , लेकिन अफ़सोस कि वह पर्याप्त नहीं थी । उस पवित्र युद्ध के एक प्रमुख नेता नाना साहब ने मदद और सहयोग हासिल करने के मक़सद से युरोप तक की यात्रा की थी । दुर्भाग्यवश उन्हें इस कोशिश में कामयाबी हासिल नहीं हुई और नतीजतन १८५७ में जब क्रान्ति शुरु हुई , तब अंग्रेजों का बाकी दुनिया से कोई झगड़ा नहीं था और वे अपनी पूरी ताकत और संसाधन हिन्द के लोगों को कुचलने में लगा सके । मुल्क की भीतर जनता और भारतीय सैनिकों के बीच काबिले गौर होशियारी के साथ गुप्त सन्देश प्रचारित कर दिये गये थे । इस वजह से संकेत होते ही देश के कई हिस्सों में एक साथ लड़ाई शुरु हो सकी । फ़तह पर फ़तह हासिल होती गयी । उत्तर भारत के महत्वपूर्ण शहर अंग्रेजों के चंगुल से मुक्त हो गये तथा उनमें इन्कलाबी फौज ने जीत का परचम लहराया । अभियान के पहले चरण में हर जगह इन्कलाब को कामयाबी मिली । दूसरे चरण में जब दुश्मन का जवाबी हमला शुरु हुआ तब हमारे सैनिक टिक न सके । तब ही यह पता चला कि क्रान्तिकारियों ने एक राष्ट्रव्यापी रणनीति नहीं बनाई थी तथा उस रणनीति के संचालन और समन्वय के लिए एक गतिमान नेता का अभाव था । देश के कई भागों के राजा निष्क्रीय और उदासीन रहे । बहादुरशाह ने इस बाबत जयपुर , जोधपुर , बिकानेर , अलवर आदि के राजाओं को लिखा :
" मेरी प्रबल आरज़ू है कि अंग्रेज किसी भी कीमत पर , किन्हीं भी उपायों से हिन्दुस्तान से खदेड़ दिए जाँए । मेरी उत्कट कामना है कि समूचा हिन्दुस्तान आज़ाद हो । इस उद्देश्य से छेड़ा गए इन्कलाबी युद्ध के माथे पर विजय का सेहरा तब तक बँध नहीं सकता जब तक ऐसा कोई व्यक्ति सामने नहीं आता जो पूरी तहरीक की जिम्मेदारी अपने कन्धों पर ले सके , राष्ट्र की विभिन्न शक्तियों को संगठित कर सके तथा पूरी जनता को इस जागृति के दौरान राह दिखाये । अंग्रेजों को हटाने के बाद भारत पर राज करने की मेरी कोई तमन्ना नहीं है । आप सभी अपनी म्यानों से तलवार खींच कर दुश्मन को भगाने के लिए तैयार हो जाँए तब मैं तमाम शाही-हकूक भारतीय राजाओं के संघ के हक़ में छोड़ने के लिए तैयार हूँ । "
यह ख़त बहादुरशाह ने अपने हाथ से लिखा था । देशभक्ति और त्याग की भावना से सराबोर इस पत्र को पढ़कर हर आज़ादी-पसन्द हिन्दुस्तानी का सिर प्रशंसा और अदब से झुक जाएगा ।
बहादुरशाह बूढ़े और कमजोर हो चुके थे और इसलिए उन्हें लगा कि खुद इस जंग का संचालन करना उनके बूते के बाहर होगा । उन्होंने छ: सदस्यीय समिति गठित की जिसमें तीन सेनापति और तीन नागरिक-प्रतिनिधि थे । इस समिति को पूरे अभियान को संचालित करने की जिम्मेदारी दी गई । उनके द्वारा किए गए तमाम प्रयास निष्फल रहे क्योंकि भारत की पूर्ण आजादी के लिए परिस्थितियाँ परिपक्व नहीं हुई थीं ।
एक और तथ्य इस बुजुर्ग नेता के इन्कलाबी जज़्बे और जोश का द्योतक है । उत्तर प्रदेश के बरेली शहर की दीवारों पर अंकित बहादुरशाह का यह फ़रमान गौरतलब है :
" हमारी इस फौज में छोटे-बड़े का भेद भूलकर बराबरी के आधार को नियम माना जाएगा चूँकि इस पाक जंग में तलवार चलाने वाला हर शक्स समान रूप से प्रतापी है । इसमें शामिल सभी लोग भाई-भाई हैं , उनमें अलग-अलग वर्ग नहीं होंगे । इसलिए मैं अपने सभी हिन्दुस्तानी भाइयों से आह्वान कर रहा हूँ जागो तथा दैवी आदेश और सर्वोच्च दायित्व का निर्वाह करने के लिए रण भूमि में कूद पड़ो । "
मैंने इन तथ्यों का हवाला इसलिए दिया है ताकि आप यह जान सकें कि मौजूदा आज़ाद हिन्द फौज की बुनियाद १८५७ में पड़ चुकी थी । आज़ादी की इस आखिरी जंग में हमें १८५७ की जंग और उसकी खामियों से सबक लेना होगा ।
इस बार दैव-योग हमारे पक्ष में है । शत्रु कई मोर्चों पर जीवन-मृत्यु के संघर्ष में उलझा हुआ है । देश की जनता पूरी तरह जागृत है । आज़ाद हिन्द फौज एक अपराजेय शक्ति है और उसके सभी सदस्य अपने राष्ट्र की मुक्ति के साझा प्रयत्न के लिए एकताबद्ध हैं । पूर्ण विजय हासिल करने तक चलने वाले इस अभियान के लिए हम एक दूरगामी साझा रणनीति से लैस हैं । हमारा आधार-अड्डा अच्छी तरह संगठित है और सबसे महत्वपूर्ण है कि अपना जौहर दिखाने की प्रेरणा के लिए हमारे पास बहादुरशाह की यादें और मिसाल है । अंतिम विजय हमारी होगी इसमें क्या कोई शक रह जाता है ?
जब मैं १८५७ के घटनाक्रम का अध्ययन करता हूँ और क्रान्ति के विफल हो जाने के बाद अंग्रेजों द्वारा ढाये गए जुल्म और सितम को याद करता हूँ तब मेरा खून खौल उठता है । अगर हम मर्द हैं , तब १८५७ और उसके बाद के वीरों पर अंग्रेजों द्वारा ढाये गए जुल्म और बर्बरता का पूरा बदला ले कर रहेंगे । अंग्रेजों ने निर्दोष व आज़ादी पसन्द हिन्दुस्तानियों का खून न सिर्फ युद्ध के दौरान बहाया बल्कि उसके बाद भी अमानवीय अत्याचार किए । उन्हें इन अपराधों की कीमत चुकानी होगी । हम भारतीय, शत्रु से पर्याप्त घृणा नहीं करते ।यदि आप चाहते हैं कि आपके देशवासी अतिमानवीय साहस और शौर्य की ऊँचाइयों को छू सकें तब आपको उन्हें देश के प्रति प्रेम के साथ - साथ शत्रु से घृणा करना भी सिखाना होगा ।
इसलिए मैं खून माँगता हूँ । शत्रु का खून ही उसके अपराधों का बदला चुका सकता है । किन्तु हम खून तब ही ले सकते हैं जब खून देने के लिए तैयार हों । इस युद्ध में बहने वाला हमारे वीरों का खून ही हमारे किए पापों को धो डालेगा । हमारा आगामी कार्यक्रम खून देने का है । हमारी आजादी की कीमत हमारे वीरों के खून की कीमत है । हमारे वीरों के खून , उनकी बहादुरी और पराक्रम ही भारत की जनता द्वारा ब्रिटिश आतताइयों और जुल्मियों से बदला लेने की माँग पूरा करना सुनिश्चित करेंगे ।
वृद्ध बहादुरशाह ने पराजय के बाद इसी पैगम्बरी अन्तर्दृष्टि के साथ कहा था :
" गाजियों में बू रहेगी , जब तलक ईमान की,
तख़्ते लन्दन तक चलेगी , तेग हिन्दुस्तान की । "
इस साल के आयोजन के साथ यह असाधारण , शायद दैवी संयोग था कि सम्राट बहादुरशाह की पुण्य तिथि और 'नेताजी सप्ताह' एक साथ पड़े हैं । 'नेताजी सप्ताह' के दौरान समूचे पूर्वी एशिया में रहने वाले भारतीय भारतीयों ने मुकम्मिल आज़ादी हासिल करने तक अपनी लड़ाई जारी रखने का विधिवत संकल्प लिया है । यह दैवी संकेत है कि आज़ादी के जंग के पहले सेनापति की समाधि का स्थल भारत की आज़ादी की आखिरी जंग का मुख्य केन्द्र है । इसी पवित्र अड्डे से हमारी अपनी मातृभूमि की ओर अग्रसर है । आज़ाद हिन्द फौज की आनुष्ठनिक कवायद में इसी स्थान पर पुन: जुट कर हम अपने संकल्प की आंशिक पूर्ति की खुशी महसूस करने के साथ-साथ भारत की भूमि को अनचाहे अंग्रेजों से निजात दिलाने तक अनवरत संघर्ष के लिए कमर-कस कर तैयार हो रहे हैं ।
यहाँ १८५७ के घटनाक्रम पर एक नज़र डालना वाजिब होगा । अंग्रेज इतिहासकारों ने १८५७ की लड़ाई के बारे में यह दुष्प्रचार कर रखा है कि वह अंग्रेज फौज में सेवारत भारतीय सैनिकों का विद्रोह-मात्र था । हकीकत है कि वह एक कौमी इन्कलाब था जिसमें भारतीय सैनिकों के साथ-साथ नागरिकों ने भी शिरकत की थी । इस राष्ट्रव्यापी जंग में कई राजा शरीक हुए जबकि यह दुर्भाग्यपूर्ण रहा कि कई राजा खुद को दरकिनार किए रहे । इस जंग के शुरुआती दौर में कई फतह हुईं , अन्तिम दौर में ही बड़ी ताकत के बल पर हमें पराजित किया गया ।किसी क्रान्ति की तवारीख़ में ऐसा होना बिलकुल असामान्य नहीं है ।दुनिया के इतिहास में यह मुश्किल से मिलेगा जब क्रान्ति पहले संघर्ष में ही कामयाब हो गयी हो । "आज़ादी की लड़ाई एक बार आरम्भ होती है तो पुश्त-दर-पुश्त चलती है " । बवक्तन यदि इंकलाब नाकामयाब भी होता है या दबा दिया जाता है तब भी उसके कुछ सबक हासिल होते हैं । आगे आने वाली पीढ़ियाँ इन सबक को लेकर अपनी लड़ाई ज्यादा असरकारक तरीके से , ज्यादा तैयारी के साथ फिर से खड़ी करती हैं । हम ने १८५७ की नाकामयाबी से सबक लिया है और इस तजुर्बे का इस्तेमाल भारत की आज़ादी की इस आखिरी जंग में किया है ।
यह सोचना भूल होगी कि १८५७ में एक दिन अचानक लोगों ने अंग्रेजों के खिलाफ़ हथियार उठा लिए । कोई भी क्रान्ति जल्दबाजी में या अललटप्पू तरीके से नहीं लायी जाती है । १८५७ के हमारे रहनुमाओं ने अपने तईं पूरी तैयारी की थी , लेकिन अफ़सोस कि वह पर्याप्त नहीं थी । उस पवित्र युद्ध के एक प्रमुख नेता नाना साहब ने मदद और सहयोग हासिल करने के मक़सद से युरोप तक की यात्रा की थी । दुर्भाग्यवश उन्हें इस कोशिश में कामयाबी हासिल नहीं हुई और नतीजतन १८५७ में जब क्रान्ति शुरु हुई , तब अंग्रेजों का बाकी दुनिया से कोई झगड़ा नहीं था और वे अपनी पूरी ताकत और संसाधन हिन्द के लोगों को कुचलने में लगा सके । मुल्क की भीतर जनता और भारतीय सैनिकों के बीच काबिले गौर होशियारी के साथ गुप्त सन्देश प्रचारित कर दिये गये थे । इस वजह से संकेत होते ही देश के कई हिस्सों में एक साथ लड़ाई शुरु हो सकी । फ़तह पर फ़तह हासिल होती गयी । उत्तर भारत के महत्वपूर्ण शहर अंग्रेजों के चंगुल से मुक्त हो गये तथा उनमें इन्कलाबी फौज ने जीत का परचम लहराया । अभियान के पहले चरण में हर जगह इन्कलाब को कामयाबी मिली । दूसरे चरण में जब दुश्मन का जवाबी हमला शुरु हुआ तब हमारे सैनिक टिक न सके । तब ही यह पता चला कि क्रान्तिकारियों ने एक राष्ट्रव्यापी रणनीति नहीं बनाई थी तथा उस रणनीति के संचालन और समन्वय के लिए एक गतिमान नेता का अभाव था । देश के कई भागों के राजा निष्क्रीय और उदासीन रहे । बहादुरशाह ने इस बाबत जयपुर , जोधपुर , बिकानेर , अलवर आदि के राजाओं को लिखा :
" मेरी प्रबल आरज़ू है कि अंग्रेज किसी भी कीमत पर , किन्हीं भी उपायों से हिन्दुस्तान से खदेड़ दिए जाँए । मेरी उत्कट कामना है कि समूचा हिन्दुस्तान आज़ाद हो । इस उद्देश्य से छेड़ा गए इन्कलाबी युद्ध के माथे पर विजय का सेहरा तब तक बँध नहीं सकता जब तक ऐसा कोई व्यक्ति सामने नहीं आता जो पूरी तहरीक की जिम्मेदारी अपने कन्धों पर ले सके , राष्ट्र की विभिन्न शक्तियों को संगठित कर सके तथा पूरी जनता को इस जागृति के दौरान राह दिखाये । अंग्रेजों को हटाने के बाद भारत पर राज करने की मेरी कोई तमन्ना नहीं है । आप सभी अपनी म्यानों से तलवार खींच कर दुश्मन को भगाने के लिए तैयार हो जाँए तब मैं तमाम शाही-हकूक भारतीय राजाओं के संघ के हक़ में छोड़ने के लिए तैयार हूँ । "
यह ख़त बहादुरशाह ने अपने हाथ से लिखा था । देशभक्ति और त्याग की भावना से सराबोर इस पत्र को पढ़कर हर आज़ादी-पसन्द हिन्दुस्तानी का सिर प्रशंसा और अदब से झुक जाएगा ।
बहादुरशाह बूढ़े और कमजोर हो चुके थे और इसलिए उन्हें लगा कि खुद इस जंग का संचालन करना उनके बूते के बाहर होगा । उन्होंने छ: सदस्यीय समिति गठित की जिसमें तीन सेनापति और तीन नागरिक-प्रतिनिधि थे । इस समिति को पूरे अभियान को संचालित करने की जिम्मेदारी दी गई । उनके द्वारा किए गए तमाम प्रयास निष्फल रहे क्योंकि भारत की पूर्ण आजादी के लिए परिस्थितियाँ परिपक्व नहीं हुई थीं ।
एक और तथ्य इस बुजुर्ग नेता के इन्कलाबी जज़्बे और जोश का द्योतक है । उत्तर प्रदेश के बरेली शहर की दीवारों पर अंकित बहादुरशाह का यह फ़रमान गौरतलब है :
" हमारी इस फौज में छोटे-बड़े का भेद भूलकर बराबरी के आधार को नियम माना जाएगा चूँकि इस पाक जंग में तलवार चलाने वाला हर शक्स समान रूप से प्रतापी है । इसमें शामिल सभी लोग भाई-भाई हैं , उनमें अलग-अलग वर्ग नहीं होंगे । इसलिए मैं अपने सभी हिन्दुस्तानी भाइयों से आह्वान कर रहा हूँ जागो तथा दैवी आदेश और सर्वोच्च दायित्व का निर्वाह करने के लिए रण भूमि में कूद पड़ो । "
मैंने इन तथ्यों का हवाला इसलिए दिया है ताकि आप यह जान सकें कि मौजूदा आज़ाद हिन्द फौज की बुनियाद १८५७ में पड़ चुकी थी । आज़ादी की इस आखिरी जंग में हमें १८५७ की जंग और उसकी खामियों से सबक लेना होगा ।
इस बार दैव-योग हमारे पक्ष में है । शत्रु कई मोर्चों पर जीवन-मृत्यु के संघर्ष में उलझा हुआ है । देश की जनता पूरी तरह जागृत है । आज़ाद हिन्द फौज एक अपराजेय शक्ति है और उसके सभी सदस्य अपने राष्ट्र की मुक्ति के साझा प्रयत्न के लिए एकताबद्ध हैं । पूर्ण विजय हासिल करने तक चलने वाले इस अभियान के लिए हम एक दूरगामी साझा रणनीति से लैस हैं । हमारा आधार-अड्डा अच्छी तरह संगठित है और सबसे महत्वपूर्ण है कि अपना जौहर दिखाने की प्रेरणा के लिए हमारे पास बहादुरशाह की यादें और मिसाल है । अंतिम विजय हमारी होगी इसमें क्या कोई शक रह जाता है ?
जब मैं १८५७ के घटनाक्रम का अध्ययन करता हूँ और क्रान्ति के विफल हो जाने के बाद अंग्रेजों द्वारा ढाये गए जुल्म और सितम को याद करता हूँ तब मेरा खून खौल उठता है । अगर हम मर्द हैं , तब १८५७ और उसके बाद के वीरों पर अंग्रेजों द्वारा ढाये गए जुल्म और बर्बरता का पूरा बदला ले कर रहेंगे । अंग्रेजों ने निर्दोष व आज़ादी पसन्द हिन्दुस्तानियों का खून न सिर्फ युद्ध के दौरान बहाया बल्कि उसके बाद भी अमानवीय अत्याचार किए । उन्हें इन अपराधों की कीमत चुकानी होगी । हम भारतीय, शत्रु से पर्याप्त घृणा नहीं करते ।यदि आप चाहते हैं कि आपके देशवासी अतिमानवीय साहस और शौर्य की ऊँचाइयों को छू सकें तब आपको उन्हें देश के प्रति प्रेम के साथ - साथ शत्रु से घृणा करना भी सिखाना होगा ।
इसलिए मैं खून माँगता हूँ । शत्रु का खून ही उसके अपराधों का बदला चुका सकता है । किन्तु हम खून तब ही ले सकते हैं जब खून देने के लिए तैयार हों । इस युद्ध में बहने वाला हमारे वीरों का खून ही हमारे किए पापों को धो डालेगा । हमारा आगामी कार्यक्रम खून देने का है । हमारी आजादी की कीमत हमारे वीरों के खून की कीमत है । हमारे वीरों के खून , उनकी बहादुरी और पराक्रम ही भारत की जनता द्वारा ब्रिटिश आतताइयों और जुल्मियों से बदला लेने की माँग पूरा करना सुनिश्चित करेंगे ।
वृद्ध बहादुरशाह ने पराजय के बाद इसी पैगम्बरी अन्तर्दृष्टि के साथ कहा था :
" गाजियों में बू रहेगी , जब तलक ईमान की,
तख़्ते लन्दन तक चलेगी , तेग हिन्दुस्तान की । "
जय हिन्द
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